यूं तो हिंदी भाषा में दास शब्द का सामान्य अर्थ है किसी के अधीन रहने वाला सेवक नौकर— दास के कई रूप हुआ करते हैं. लेकिन उत्तराखण्ड में दास ताल वाद्य बजाने और देववाणी गाने वाले ख़ास जनों को कहा जाता है. ये ढोल आदि ताल वाद्यों के साथ लोक देवताओं का चरित्र गान करते हैं और धामियों, पश्वाओं और डंगरियों में उनको अवतरित करवाने का काम किया करते हैं. दास उत्तराखण्ड की शिल्पकार कही जानी वाली दलित जातियों की ही उपजाति है. (Das of Uttarakhand Descendants of Raidas)
दास खुद को रैदास का वंशज मानते हैं. जागर गाथाओं में रैदास के अलावा भी अनेकों अन्य प्रसिद्ध दासों का भी जिक्र मिलता है— अजयदास, विजयदास, बिणीदास, कालूदास, खैरोंदास, धरमदास आदि.
कुछ लोग अपने इन पूर्वजों को कत्यूरियों की चारण परम्परा से जुड़ा भी बताते हैं. कत्यूरी वंशावली में इन्हें युद्ध के प्रस्थान के समय बिजैसार ढोल तथा नगाड़े बजाने वाले तथा अनेक तांत्रिक विद्याओं का भी जानकार बताया गया है—
बड़ी जिया का गुरु रैदास, खैरीदास छीं.
बंगाली चेटू बगल दबूनी.
चौबाटा की धूल, बोकसाड़ी विद्या, तामसिरी रौटी चलूंनी.
लुवा बिजैसार चलूनी, भैरी को धधकारो चलूनीं.
इन्हें निर्गुण कबीरपंथी संतों के पूज्य इष्टदेव निरंकार का अनुयायी भी माना जाता है. डॉ. प्रयाग जोशी ने निरंकार के अराधक रवाईं जौनपुर के दासों के संबंध में एक अनोखी प्रथा का उल्लेख करते हैं. जिसके अनुसार ये लोग निरंकार की पूजा के दिन घर की छत में आग लगा देते हैं. यह प्रतीकात्मक रूप से घर-बार फूंककर निरंकार के पथ पर चलने को दिखाता है.
उत्तराखण्ड के ग्राम्य समाज में दलित जाति का होने के कारण इन्हें उपेक्षित और तिरस्कृत जीवन जीना पड़ा है. जिस वजह से नयी पीढ़ी अपने पारंपरिक पेशे से विमुख होती जा रही है.
सन्दर्भ : उत्तराखण्ड ज्ञानकोष – प्रो. डी. डी. शर्मा
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