जीवन का दर्शन, जीवन का महात्म्य, जीवन के साथ ही समझ आता है. समय सबसे बड़ा शिक्षक है. आयु कहीं-न-कहीं आपको कम आयु वाले से वरिष्ठ बनाती ही है. हम सब उन यात्रियों की तरह हैं जो, किसी स्टेशन से बिना रुके थरथरा कर गुजरती रेलगाड़ी में बैठ कर, प्लेटफॉर्म पर बैठे यात्रियों को दया की दृष्टि से देखते हैं, ये भूल कर कि कभी हमें भी उस प्लेटफॉर्म पर बैठना पड़ सकता है. आप सोच रहे होंगे कि ये दर्शन क्यों बाँटा जा रहा है? तो भाइयों और बहनों! बात दरअसल ये है कि जीवन ने हमें उस मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया है, जहाँ पहले कोई और खड़ा था. Dantkatha Satire by Priy Abhishek
बात थोड़ी पुरानी है. गाँव की पाँत (पंगत) में बगल में बैठे एक बूढ़े बाबा ने तसला पकड़े उस लड़के से कहा,”लला, एक मुलायम सी पूड़ी दियो!” दौना मुँह से लगा कर सन्नाटा सूतते हुए, हमने उन्हें उपहास भरी नज़रों से देखा. फिर दौना रखकर गर्व भरी आवाज़ में कहा ,”मुझे एक बढ़िया कड़क, कुरकुरी पूड़ी दो!” बाबा ने हमें यूँ देखा मानो कह रहे हों- बेटा हमारी तो कट गई, किसी दिन तुम्हारी भी कटेगी.
“उन्हीं बाबा की बद्दुआ ही होगी ये,” गाड़ी चलाते हुए मैंने खुद से कहा. कल मैंने भी घर में मुलायम पूड़ी माँगी, और बच्चों ने उसी दृष्टि से देखा, जैसे हमने पाँत में बाबा को देखा था. रास्ते मे दांत के डॉक्टरों के छोटे-छोटे क्लीनिक दिखे. सोचा किसी भी डॉक्टर को दिखा दो, क्या फ़र्क पड़ता है. सभी बीडीएस किए हैं. इनको भी तो मौका मिलना चाहिए. अचानक मुझे ड्रैगन की याद आ गई. हाँ, ड्रैगन की. हो सकता था कि ये ड्रैगन की बद्दुआ हो.
कॉलेज में हमारे साथ पढ़ता था वो. उसकी साँसें तीन-चार मीटर दूर से भी महसूस की जा सकती थीं. पहले भभके में ही -मुझे छू रही हैं तेरी गर्म साँसें याद आ जाता. इससे निकट जाने पर जान का खतरा था. पर जैसा भी था, यार था हमारा. हम उससे बातें करते, जब तक साँस रोक सकते थे. उसके बाद किसी तैराक की तरह मुँह इधर-उधर कर के साँस भरते और फिर उसकी बातें सुनने लगते. वो जिधर जाता ,भीड़ काई की तरह फट जाती. उसको रास्ता दे देती. कॉलेज के आखिरी साल तक वो यही सोचता रहा कि लोग उसके सम्मान में रास्ता छोड़ देते हैं. और हम सोचते थे कि इसकी पत्नी का क्या होगा. हो सकता है उसको मालूम पड़ गया हो कि उसका नाम ड्रैगन रखा गया है. हो सकता नहीं, ऐसा ही है! उसे पक्का पता चल गया होगा कि हम उसे पीठ पीछे ड्रैगन बुलाते हैं. “हाँ, ड्रैगन की बद्दुआ लगी है. पर ड्रैगन ही क्यों, खुरपा की बद्दुआ भी तो लग सकती है.”
कुछ वर्ष पूर्व ऑस्ट्रेलियन क्रिकेट खिलाड़ी एंड्र्यू सायमंड्स ने भारत में एक मैच के दौरान दर्शकों पर नस्लभेदी टिप्पणी करने का आरोप लगाया था. मुझे पक्का यकीन है कि सायमंड्स भारतीयों को गलत समझ बैठे. खुद नस्लभेद का शिकार रहे, और इसके ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले हम भारतीय भ्रष्ट, निकम्मे, साम्प्रदायिक, जातिवादी, कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन नस्लभेदी (रेसिस्ट) नहीं हो सकते. इस देश में शारीरिक रचना, रूप-रंग के आधार पर नामकरण करने का रिवाज़ रहा है. यदि मैं शहर की बजाय, अपने गाँव में पैदा होता, तो निश्चय ही मेरा नाम भूरा होता. हम काले को कालू ही बुलाएंगे, पतले को हड्डी और मोटे को भैंसा. यहाँ कोई किसी का बुरा नहीं मानता. और बुरा माने भी तो कैसे, हमे पता हो तब न. जब हमारी शिक्षा पद्धति हमें नस्लों के बारे में ही नहीं बताती, तो नस्ल भेद तो दूर की बात है. बॉडी शेमिंग, बुलिंग के बारे में तो सोचिये भी मत.
खुरपा बहुत खुशमिज़ाज लड़का था. उसका असली नाम यहाँ नहीं बताया जा सकता. किसी मुक्तावली के मोतीयों जैसे उसके ऊपर के चार दांत सदा मुँह से बाहर निकले, जगत को आलोकित करते रहते थे. ये संयोग है या नियति नहीं जानता, लेकिन वे लोग जिनके दांत बाहर निकले रहते हैं वे बहुत हँसमुख होते हैं. खुरपा भी था. दोस्त उससे कहते- खुरपा, जा तरह तेरे दांत ऊपर उठत जाय रहे हैं, कछु दिना में झगड़ा होए तौ तू काटबे की बजाय दांत घोंप दियो. खुरपा थूक सुड़क कर हँसने लगता. पता नहीं उसके उन चार धवल मोती जैसे दांतों का खुरपी से क्या सम्बंध था. और खुरपा क्यों? खुरपी क्यों नहीं? क्या खुरपा, खुरपी का पुल्लिंग है? क्या मेरे दांत का दर्द खुरपा की बद्दुआओं की ही वजह से है? खुरपा इतना निर्मल हृदय था कि वह किसी के लिए बुरा सोच ही नहीं सकता. हो सकता है ये साँकल की वजह से हुआ हो. बात खुरपा से निकले तो साँकल तक पहुँचनी ही थी.
साँकल और खुरपा का अंतर शहर और गाँव का अंतर था, दोनों जगह की चिकित्सा सेवाओं का अंतर था, समय का अंतर था. साँकल के ऊपर के दांतों में एक साँकल बंधी थी. जो हर दांत में किसी छोटे नगीने जैसे जड़े हुए खाँचे में से निकलती थी. साँकल जब भी मुस्कुराता तो उसकी पूरी साँकल दिखती. लगता जैसे दांतो के लिए कोई नया गहना आया है. उस समय उच्च-वर्गीय बच्चे इसे गहने की तरह ही धारण करते थे. बात-बात पर खीसें निपोर कर उसका प्रदर्शन करते. कौतूहल ये था कि ये साँकल पीछे बंधी कहाँ है? क्या आखिरी मसूड़ों में कील ठोंक कर साँकल बांधी गई है? ये साँकल टिकी कैसे है? साँकल हँसता तो दांतो के बीच से उसके मुँह के अंदर झाँकने की खिड़की कुछ क्षण के लिए खुलती, पर कुछ दिखता नहीं था.
आज हम सोचते हैं कि खुरपा अगर शहर में होता तो खुरपा, खुरपा नहीं, साँकल होता. और साँकल ,साँकल द्वितीय होता. हो सकता है ये दांत की तकलीफ़ साँकल की वजह से हो. ये सब सोचते-सोचते डॉक्टरों का बाज़ार आ गया. एक दुकान अच्छी लगी. वहाँ लिखा था -यहाँ बिना दर्द के दाँत निकाले जाते हैं. यह पढ़ कर मैं घबरा गया. मुझे दार्शनिकों वाला किस्सा याद आ गया जो दिल्ली वाले मित्र ने अरस्तू की फ़ैल्सीज़ पढ़ाते हुए सुनाया था. Dantkatha Satire by Priy Abhishek
तो हुआ यूँ कि एक व्यक्ति के दांत में दर्द हुआ. उसके तीन दार्शनिक मित्र उसे डॉक्टर को दिखाने ले गए. बाहर बोर्ड लगा था -यहाँ बिना दर्द के दांत निकाले जाते हैं. बोर्ड देख कर चारों वहीं रुक गए. आख़िर इसका क्या अर्थ हो सकता है? उन्होंने विचार किया. पहला दार्शनिक बोला- “इसका अर्थ है ये डॉक्टर केवल बिना दर्द वाले दांत निकालता है. वह, वे दांत निकाल देगा जिनमें दर्द नहीं है, और दर्द वाले दांत को छोड़ देगा.” दूसरा दार्शनिक बोला- “नहीं-नहीं, इसका अर्थ है दांत तो दर्द वाला ही निकाला जाएगा, पर केवल दांत निकाला जाएगा, दर्द नहीं. दर्द वहीं छोड़ दिया जाएगा.” तीसरा दार्शनिक बोला- “तुम दोनों गलत हो. इसका मतलब है कि डॉक्टर बहुत जालिम है, निर्दयी है. उसे मरीज से कोई सम्वेदना नहीं है. दांत निकालते वक़्त उसके दिल में कोई दर्द नहीं होता है.” वे तीनों दार्शनिक अपने मित्र को वापस ले गए. और हमने भी आगे बढ़ने का फैसला किया.
तमाम बिल्डिंगों के बीच एक सबसे विशाल, गगनचुम्बी बिल्डिंग थी, जिसके बाहर सपरिवार बत्तीसी दिखाते अंग्रेजों की आदमक़द फोटो लगी थीं. भवन की भव्यता से ही लगता था कि इसकी नींव की चिनाई अनगिनत बत्तीसीयों, दाढ़ों और दांतों के सीमेंट को माउथवाश में मिला कर की गई होगी. वहाँ लुटना तय था. मैंने स्वयं से कहा, “हाँ, यहीं मिलेगा मुझे सही इलाज.” और मैं उसमें प्रवेश कर गया.
अंदर कतार से लोग बैठे थे. तरह-तरह के पोस्टर लगे थे जिनसे ये विश्वास होता था कि शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग दांत ही हैं, और दांत की तकलीफ़ से बड़ी तकलीफ़ कोई नहीं है. टीवी चल रहा था जिस पर इंक़लाब का गाना आ रहा था- अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंस गया है तू. रिसेप्शनिस्ट ने कहा-“फ़ाइल बनवा लीजिये.” मैंने भी कहा- “बना दीजिये.” उसने एक फ़ाइल पर मेरा नाम लिखा और कहा-“तीन सौ रुपये दीजिये.” फ़ाइल बनवाने का अर्थ मुझे अब समझ आया. गाना अब पहले से साफ़ सुनाई दे रहा था. मैं भी कतार में जाकर बैठ गया. रह-रह कर मुझे टुन्नी काकी की याद आने लगी. Dantkatha Satire by Priy Abhishek
“क्या हुआ था काका को?” अपनी आवाज़ को थोड़ा ऊँचा कर के हमने काकी से पूछा था. काकी अपने घर के बाहर चबूतरे पर बैठी हाथ का पंखा घुमा रही थीं. “कछु नहीं बेटा, कछु नहीं. बिल्कुल सही हते. सबेरे बोले- दांत में दरद है, नैक दिखाय आऊँ. बस, अस्पताल दांत दिखायबे गए, लास बाहर आई.” यह किस्सा ध्यान आते ही मुझे पसीना आने लगा. और भी ऐसी अनेक घटनाएं याद आने लगी जिनमें आदमी दांत दिखाने गया था, और उसकी ‘लास’ बाहर आई. अब मुझे लगने लगा दुनिया में हर तीसरी मृत्यु इसी तरह से हुई है कि आदमी दांत दिखाने गया, और उसकी लास बाहर आई. “क्या करूँ? भाग चलूँ?” मैंने खुद से कहा, “तीन सौ रुपये भाड़ में जाने दे. कुछ दिन और फिटकरी का कुल्ला करके देखते हैं.” मैं भागने के लिए खड़ा हो गया.
“आइए बैठिए. क्या हुआ है आपको?” एक आवाज़ गूँजी. डॉक्टर मेरे सामने खड़ी थीं और मैं डॉक्टर के चैम्बर में था. “मैं अंदर कैसे आ गया? मैं तो बाहर जा रहा था. कोई उठा कर रख गया क्या? मुझे पता क्यों नहीं चला?” मैंने फिर खुद से कहा. गाना अभी भी चल रहा था.
“जी दांत में दर्द है,” मैंने डॉक्टर को बताया. “अच्छे से आराम से बैठिये,” डॉक्टर मैडम ने कहा. डॉक्टर के पास पहुँच कर आधी बीमारी ख़त्म हो जाती है- ये बात मुझे अब महसूस हुई. दांत का दर्द पहले से काफ़ी कम लग रहा था. पर इस फौरी राहत में डॉक्टर के अलावा किसी अन्य चीज़ का भी योगदान था.
“आप इतना मुस्कुरा क्यों रहे हैं? अभी तो आप दर्द से परेशान थे. पहला मरीज़ देखा है जो इतना प्रसन्न है.” दांतो की जाँच करते हुए डॉक्टर मैडम ने कहा. “जी मुझे बहुत खुशी हो रही है. ऐसी चीज़ पहली बार देखी है.” “मतलब?” “मतलब मैं इस कुर्सी की बात कर रहा हूँ. अद्भुत है. चाहो तो पूरे पैर पसार लो. बटन दबाओ तो सीधी होकर पलंग बन जाती है. बगल में नल लगा है. मंजन करो और लेटे-लेटे ही कुल्ला कर लो. गुटखा-तम्बाकू थूक दो. ऊपर रीडिंग लाइट जल रही है. मन हो तो पढ़ लो. मतलब मुझे लगता है अगर जन्नत कहीं है तो हमी नस्तो, हमी नस्तो, हमी नस्त. ऐसी कुर्सी तो लेखकों और आलसियों के लिए वरदान है. ये तो सरकार को सब्सिडी पर देनी चाहिये. बस एक इंतज़ाम और हो जाये. ये सीट हटने वाली हो और मतलब यहीं कर के फ्लश का बटन दबा दें.”
“रूट कैनाल करना पड़ेगा. आप काउंटर पर रुपये जमा करा दीजिये.” डॉक्टर मैडम ने कहा. “पर मैं तो इतने रुपये लाया ही नहीं.” “अभी जितने लाये हैं उतने ही जमा करा दीजिये, तीन सिटिंग होंगी.” डॉक्टर मैडम ने ये कह कर आँखों में आँखे डाली, “आपको लेखक और आलसी अलग-अलग बोलने की आवश्यकता नहीं थी. एक से भी काम चल जाता.”
मैं बाहर आ गया. गाना अभी भी चल रहा है- अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंस गया है तू…
Dantkatha Satire by Priy Abhishek
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प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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