उत्तराखण्ड के टिहरी गढ़वाल ज़िले के श्रीकोट गाँव में 26 अप्रैल को एक शादी थी. पास के बासान गाँव से कुछ लोग अपनी रिश्तेदारी के नाते श्रीकोट शादी में शामिल होने के लिए आये. उनमें से एक था 21 साल का जितेंद्र दास. जितेंद्र अपने गाँव 26 की रात को लौटा ज़रूर पर 27 की सुबह देहरादून के एक अस्पताल पहुँचाया गया और लगभग दस दिन के अंदर उसकी मौत भी हो गयी. जितेंद्र की मौत का सच जिस तरह की ‘मामूली’ घटना की तरफ इशारा करती है, वह पहाड़ के भतेरे गाँवों-शहरों का सच है. यह केवल मौत नहीं, जातिगत भेदभाव से उत्पन्न हत्या है. जितेंद्र को अपनी ही रिश्तेदारी में तथाकथित ‘उच्च जाति’ के साथ कुर्सी पर बैठ कर रात का खाना खाने की सामान्य गतिविधि के लिए एक असामान्य अंत मिला. गजेंद्र सिंह, सोबन सिंह, कुशाल सिंह, गब्बर सिंह, गंभीर सिंह, हरबीर सिंह और हुकम सिंह ने इस ‘मामूली’ सी बात पर पहले उसकी खाने की थाली और फिर जितेंद्र को लात मार कर कुर्सी से नीचे गिराया. उसे इतना पीटा गया कि गंभीर चोटों के कारण इलाज के दौरान वह चल बसा.
यह अपवाद नहीं है. उत्तराखण्ड के सामजिक ढाँचे और प्रक्रियाओं को समझने-समझाने वाले कई बार इसकी जातीय बनावट से उत्पन्न विडम्बनाओं को अनदेखा कर जाते हैं. उत्तराखण्ड के अलग राज्य बनने की मौलिक मांग इसकी विशेष भौगोलिक और सामाजिक संरचना पर आधारित थी जो लगभग दो दशकों तक उभरती-फिसलती रही. मुख्यतः लखनऊ से निर्धारित राजनीति एवं नीतियों से पहाड़ी इलाकों में रोष रहा क्योंकि ये उनकी वास्तविक स्थिति को लखनऊ बैठ कर समझने में असमर्थ थे. परन्तु जिस ख़ास वजह से अलग राज्य की मांग ने राजनीतिक रूप से तूल पकड़ा वह थी मंडल कमीशन द्वारा पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण. पहाड़ी इलाकों में पिछड़ी जातियों की गणना बहुत सूक्ष्म है (5 फीसदी के आसपास का आंकलन.) जिस कारण पहाड़ी इलाकों की अन्य जातियों में यह आशंका और आपत्ति प्रस्तुत हुई कि पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित सरकारी नौकरियों का अधिकतम लाभ गैर-पहाड़ी इलाकों की पिछड़ी जातियों को मिलेगा. इस कारण अलग राज्य का मसला और भी गंभीर हो पड़ा और मुलायम सिंह यादव एवं मायावती सरीखे नेताओं पर पहाड़ी सामाजिक बनावट को अपने चुनावी हित के लिए तोड़ने-मरोड़ने के आरोप भी लगाए गए. 2000 में जब आखिरकार उत्तराखण्ड बना तो भले ही उसका मूल आरम्भ पहाड़ के विकास के लिए पहाड़ की समझ के आधार पर विकसित हुआ हो, मण्डल-कमण्डल और ‘मंदिर वहीं बनायेंगे’ के दौर से गुज़रते-गुज़रते, सामाजिक न्याय और हिन्दुत्व की राजनीति के बीच असहज रूप से अटक गया, और अटका हुआ है.
यह अपवाद नहीं है. 2016 में गढ़वाल के ही एक गांव में ‘उच्च जाति’ निवासियों ने सार्वजनिक तौर पर भाजपा के राज्य सभा सांसद तरुण विजय पर हमला किया था क्योंकि वह गांव के दलितों को गांव के मंदिर में प्रवेश दिलाने का समर्थन कर रहे थे. 2016 में ही बागेश्वर जिले के एक गांव में एक सवर्ण शिक्षक ने एक दलित निवासी का सिर धड़ से इसलिए काट दिया क्योंकि उसने आटे की चक्की को इस्तमाल कर उसे ‘अपवित्र’ कर डाला. अगर आप यह तर्क देने के लिए आतुर हैं कि यह तो हाल-फिलहाल की घटनाएं हैं जब एक तरह का जातीय उग्रवाद बढ़-चढ़ रहा है तो फिर 1980 के कफल्टा काण्ड की दर्दनाक दास्ताँ मत भूलियेगा जब बारात ले जा रहे 14 दलित बारातियों को अल्मोड़ा जिला के कफल्टा गाँव के सवर्णों ने ज़िंदा जला दिया था. इन हादसों में काटना, जलाना और मारना शामिल है, दलितों का सवर्णों द्वारा. इसके इलावा और कितने ही अप्रमाणिक प्रकार की हिंसा है जिसके दस्तावेज़ या आँकड़े नहीं होते.
यह अपवाद नहीं है. देवभूमि के इश्तहारों से ढकी भूमि में देवता भी अलग-थलग ही रहते हैं. बाह्य रूप से सहिष्णु धर्म के आवरण की सनातन संकीर्णता 1990 के बाद से और भी उजागर हो चली है. पवित्र स्थान बहुत आसानी से अपवित्र हो जाते हैं. उच्च न्यायालय को नदी और जानवर को इंसान सरीखे कानूनी अधिकार देने में जो गहन समर्थन हासिल होता है, वह ऐसे ‘अपवाद’ के समय काफूर हो जाता है. अपवाद तो यह है कि नदी, जंगल और जानवर को ले कर जो संवेदनशीलता कानूनी, न्यायिक और राजनीतिक रूप से उत्पादित हो रही है, वह भी उतनी ही कृत्रिम है जितने गैर अपवादी यह अपवाद है. नहीं तो सदानंद नहीं मरते, और आत्मबोधानंद को अनशन नहीं करना पड़ता. हरिद्वार में सब से ज़्यादा शराब नहीं बिकती और जंगल नहीं जलते. पर दलित का जलना, मरना, कटना आपके लिए अपवाद है क्योंकि वो नदी, जंगल और जानवर से भी कम जी पाते हैं.
हाँ, एक अपवाद ज़रूर है. जहां भारत के कई प्रदेशों में और खासकर कि हिंदी भाषी प्रदेशों में, चुनावी अंकों की राजनीति को दलित एवं पिछड़ी जातियों एवं उप जातियों के सामीकरण को समझना और अपनाना पड़ा है , उत्तराखण्ड की राजनीति में ब्राह्मण-ठाकुरवाद जारी और भारी है. उत्तराखण्ड की सामाजिक बनावट कुछ ऐसी है कि अन्य प्रदेशों के मुकाबले यहाँ पूर्ण जनसँख्या के अनुपात में ब्राह्मण एवं ठाकुर जातियों का अनुपात पूरे देश में सबसे ज़्यादा है (लगभग 85 फीसदी.) अधिकतम हिन्दू एवं अधिकतम सवर्ण हिन्दू होने के कारण प्रदेश की अपनी राजनीति में जिस प्रकार की राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूढ़िवादिता रच-बस गई है, उसमें कोई और विमर्श पैदा होने की ज़्यादा सम्भावना नहीं रह पाती. उत्तराखण्ड के 18 साल के जीवन में जो 8 मुख्यमंत्री हुए हैं, उनमें 5 ब्राह्मण सूचक और 3 ठाकुर सूचक जातियों से हैं.
रूढ़िवादिता केवल कर्म-काण्डीय नहीं होती. और आधुनिकता के दौर में रूढ़िवादिता को दुःस्वपन समझने वालों को समझना होगा कि रूढ़िवादिता आधुनिकता से भी सांठ-गाँठ कर सकती है. नहीं तो उच्च शैक्षिक स्तर का घमंड करने वाले प्रदेश में ऐसी हीनता की क्या जगह ? जितेंद्र की हत्या अपवाद नहीं है, और अगर इसको आप यह कह कर नज़रंदाज़ कर देंगे कि पहाड़ी सौहार्द में यह एक भीषण अनहोनी है तो आप गलत है. और अगर यह कह कर भुनाएंगे कि देखो जातिगत भेदभाव अभी भी ज़िंदा है, तो भी आप गलत हैं. क्योंकि न ही यह अनहोनी हैं और न ही लम्बे समय से सो रहे कुम्भकरण की तरह नींद से जागा कोई दैत्य. यह वह विमर्श है जो हमारी सामजिक बनावट का अन्तरंग हिस्सा है. पहाड़ी अस्मिता के नाम पर हम बहुत कुछ ढकने के आदि हो गए हैं. यह एक बहुत बड़ी विडंबना है कि जिस प्रदेश की रचना राष्ट्र के भौगोलिक और सामजिक हाशिये पर तैनात लोगों की पहचान की बुनियाद पर हुई, उसी प्रदेश में सामजिक न्याय से एक और हाशिया अछूता है. दरिद्रता और शोषण की राजनीति क्या केवल आर्थिक विमर्श तक ही सीमित रहेगी? क्या केवल विकास के नाम पर हो रहे बाँध निर्माण, भू अतिक्रमण और जंगल-पानी-खेत, खनन का विरोध करने तक ही हम अपने आप को प्रगतिशील मानेंगे? क्या हमारी संवेदनशीलता केवल सुदृढ़ शिक्षा व्यवस्था से वंचित लोगों के लिए ही है? क्या हमारा विरोध केवल नशे की क्रूरता और उसके सरकारी सरंक्षण से ही है? अगर आप एक गांव में अगल-बगल की कुर्सियों पर साथ बैठ कर खाना खाने की ‘मामूली ‘ घटना को एक हत्या में तब्दील होते हुए देख कर भी एक दूसरे को यह समझाना चाह रहे हैं कि हमारे सामने शिक्षा, बाँध, जंगल, पानी जैसे और बहुत बड़े सवाल हैं और यह केवल एक अपवाद, तो आप भी उस ही राजनीतिक और सामाजिक रूढ़िवादिता का हिस्सा हैं जिससे यह ‘अपवाद’ अपवाद नहीं रह जाते.
मई 1980 को श्याम प्रसाद की बारात निकली थी. कफल्टा गाँव से गुज़रते वक़्त डोली से न उतरने पर हुए झगड़े में सवर्णों ने 6 दलित बारातियों को ज़िंदा जला दिया और अन्य 8 बारातियों की मौत पत्थर और लाठी-डंडों से बुरी तरह पीटे जाने की वजह से हो गई. कल कफल्टा काण्ड को 39 साल हो जाएंगे. दस दिन पहले जितेंद्र दास की मौत हो गई, सवर्णों के लात-घूंसे खाने के कारण. वह भी एक शादी में शामिल होने गया था. यह अपवाद नहीं है.
भूमिका येल विश्वविद्यालय में पी.एच.डी की शोधकर्त्ता है.
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