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जौनसार बावर में स्त्री

दिल्ली में रहते हुए सुदूर पहाड़ के गाँव के रिश्तेदारों को निभाना एक दुरुह काम है. सगे संबंधी हमेशा इस आस में रहते है कि गाँव में रहने वाले खेतिहर और पशुचारक की मजबूरी तो एक बार को समझ में आ भी जाती है लेकिन जो व्यक्ति सरकारी नौकरी करता हो उसे क्या समस्या. उसके पास तो छुट्टियां भी होती हैं और खर्चे के लिए पैसे भी. मैं हमेशा इस बात को लेकर चौकस रहता हूँ कि शहर में रह रहे किसी रिश्तेदार की ख़ुशी गमी में शिरकत न हो पाए तो चलेगा लेकिन गाँव में रहने वाले रिश्तेदारों के यहाँ तो समय पर हाजरी देनी ही देनी है.

रिश्तेदारी की इसी फ़ेरहिस्त में एक दिन मेरी चचेरी बहन की ससुराल से फ़ोन आता है कि वे अपने घर पर स्थानीय देवता का जागरण करवा रहे हैं. उन्होंने सभी रिश्तेदारों को बुलाया है और मेरा आना भी बहुत जरूरी है. उनकी शिकायत यह भी थी कि एक नजदीकी रिश्तेदार होते हुए भी मैं कभी उनके घर नहीं जा पाया हूँ. क्योंकि बहन के घर जागरण का आयोजन शनिवार को होना था और मेरी शनिवार और रविवार छुट्टी रहती है इसलिए बहन की खुशी में शामिल होने के लिए मैं शुक्रवार की रात को दिल्ली से चलकर शनिवार उनके घर पहुँच गया.

मेरे पहुँचने तक देवता के प्रतीक चिन्ह उनके घर में स्थापित हो चुके थे. अब उस घर की दहलीज के अन्दर औरतों, दलितों और चमड़े के सामान को ले जाने की मनाही थी. मैं भी जूते बेल्ट और बटुआ किसी और के घर पर रख कर बाकी पुरुष मेहमानों के साथ वहीं बरामदे में बैठ गया. पिछले 18 घंटो से लगातार सफ़र के चलते मैं काफ़ी थकान महसूस कर रहा था लिहाजा खाना खाते ही नींद आ गयी.

अगले दिन रविवार को मुझे वापस दिल्ली आना था. इसलिए मैंने मुँह अँधेरे ही बिस्तर छोड़ दिया. इस वक्त तक जागरण अपनी अन्तिम अवस्था पर पहुँच चुका था. अब परिवार तथा गाँव के लोग और बाहर से पधारे श्रद्धालु, जिसमें अब महिलाएं भी शामिल थी, देवता के प्रतीक चिन्ह के दर्शन हेतु पंक्तिबद्ध होकर घर के अहाते पर ख़ड़े होकर आ जा रहे थे. मैं अपनी बहन से मिल कर वापसी के सफ़र की तैयारी में था. इधर-उधर नजर दौड़ाने पर जब मुझे मेरी बहन नजर नहीं आयी तो मैंने उसके पति से उसके बावत जानकारी चाही. उसके पति ने कहा कि उसको माहवारी आयी है इसलिए जब तक देवता के प्रतीक चिन्ह घर पर रखे हैं तब उसे घर की दहलीज से बाहर रहना होगा. उसने मुझे इशारे से एक घर दिखाते हुए कहा कि वो उस घर में मिलेगी. मैंने अपने झोला उठाया और उस तरफ़ हो लिया. थोड़ी सी दूरी पर दूसरे घर की दहलीज़ पर बैठी मेरी वह चचेरी बहन अपने उस घर की ओर, जहाँ देवता के प्रतीक चिन्ह रखे हुए थे, हाथ जोड़ कर दीन-हीन भावों के साथ खड़ी थी. मैंने उससे विदा ली. उसे इस बात की खुशी थी कि उसका भाई दूर दिल्ली से उसके लिए आया था लेकिन उसे इस वक्त अपने औरत होने पर पश्चात्ताप हो रहा था. उसका दुख, जो वह मुझे बता नहीं पा रही थी, वह यह था कि माहवारी की वजह से वो देवता के दर्शन से वंचित रह गयी.

देवताओं के प्रति अगाध श्रद्धा रखने वाली धार्मिक महिलाएं शायद ही कभी इस बारे में सोचने की कोशिश करें कि दुनिया की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव के सृजन के लिए उत्तरदायी माहावारी के चलते उन्हें उनके देवताओं ने अपवित्र घोषित कर दिया है. महिलाओं की इस अपवित्रता के पीछे की पुरुषवादी सोच, जो औरत को भी दलितों की ही तरह नियंत्रित करने के लिए देवताओं के डर को माध्यम बनाकर पीढ़ी दर पीढ़ी उनके मन मस्तिष्क में बहुत गहरे बिठा दी गयी है, उनकी नियति बन गयी है. धर्म और देवताओं को आगे कर शोषण का यह तरीका आज भी कितना कारगर है जब समानता ओर समतामूलक संवैधानिक व्यवस्था देश में सात दशक पूरे करने को है.

स्वयं को “छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार और सड़क छाप कवि” बताने वाले सुभाष तराण उत्तराखंड के जौनसार-भाबर इलाके से ताल्लुक रखते हैं और उनका पैतृक घर अटाल गाँव में है. फिलहाल दिल्ली में नौकरी करते हैं. हमें उम्मीद है अपने चुटीले और धारदार लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष काफल ट्री पर नियमित लिखेंगे.

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Sudhir Kumar

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