“उत्तरायण” कार्यक्रम में एक–दो बार उन्हें देखा होगा जब कभी वे लोक वार्ता बांचने आतीं लेकिन ठीक से मुलाकात की याद “आंखर” संस्था का गठन होने के बाद की है- 1977-78 के आस-पास. हम कुमाऊंनी नाटकों की रिहर्सल की जगह के लिए मारे-मारे फिरते थे. गोविंद बल्लभ पंत की कहानी “मोटर रोड” के नाट्य-मंचन की तैयारी थी. जाड़े के दिन थे और रिहर्सल शाम को ही शुरू हो सकती थी. मुरली नगर में हरदा के घर की छत पर अभ्यास शुरू किया तो ओस और ठंड से आधी टीम बीमार होने लगी. अब क्या हो? कहां जगह मिले?
एक-दो दिन के असमंजस के बाद ‘मोटर रोड’ में परुलि की भूमिका कर रही लता ने कहा- ‘रिहर्सल हमारे घर में होगी.’ नज़रबाग के लाल मकान के एक हिस्से का निचला तल्ला. कमरे कई पर परिवार उससे ज़्यादा बड़ा. बैठक के सोफे-सैट आदि इधर-उधर खिसका कर रिहर्सल का हल्ला-गुल्ला शुरु हुआ. बैठक के दरवाज़ों में लटके पर्दों के पीछे से पात्र एण्ट्री लेते. शास्त्री जी, योगाचार्य, बड़े नियम-धरम, संध्या-पूजा और अनुशासन वाले पं विद्यासागर जोशीतथा पढ़ने वाले विभिन्न-वय बच्चों से भरे उस घर में शाम को नाट्य दल की धमा-चौकड़ी से क्या हाल होता होगा, कल्पना की जा सकती है. यह अम्मा जी ही थीं जो बेटी के आग्रह पर न केवल घर के भीतर रिहर्सल करने की इज़ाज़त दे सकती थीं, बल्कि अंदर रसोई में खाना पकाते हुए नाटक के सम्वाद दोहरातीं या कभी-कभी किसी के गलत कुमांऊनी उच्चारण को हंसते हुए दुरुस्त करा दिया करती थीं. तब उनकी दरियादिली और हंसमुख स्वभाव से परिचय हुआ था.
अपनी बोली में नाटक करने, आलेख तैयार करनेऔर पत्रिका निकालने का वह अज़ब ज़ुनूनी दौर था. 1980 में “आंखर” ने हिमांशु जोशी के उपन्यास ‘कगार की आग’ के कुमाऊंनी नाट्य रूपांतरण का मंचन किया. यह काफी बड़ा प्रदर्शन था. पात्रों की बड़ी टीम ने लम्बे समय तक कड़ा अभ्यास किया. रवींद्रालय में लगातार दो दिन नाटक खेला गया था. प्रदर्शन के दो-तीन दिन बाद की बात होगी. मैं अपने ही में खोया नज़रबाग की गलियों से होता हुआ शंकरपुरी जा रहा था. अचानक किसी ने टोका- “ओहो, थोकदार ज्यू, कतु है रई तुमार दुकान में मुस?” चौंक कर देखा, सामने अम्मा जी खड़ी मुस्करा रही थीं- “भौत बढ़ि करौ तुम लोगनैल नाटक…” तब मैं समझा कि वे “कगारै आग” की तारीफ कर रही थीं जिसमें मैंने थोकदार की भूमिका की थी और दुकान में चूहों के उत्पात के बारे में एक मनोरंजक संवाद जोड़ा था.
गोरा, गोल, चमकदार चेहरा और माथे पर इंगूर की खूब बड़ी-सी बिंदी. मुझे उनकी वह छवि आज तक याद है. और हां, हाथ में बिनाई. उनके अभ्यस्त हाथों में बिनाई हमेशा ही रहती थी. मुहल्ले की सड़कों में आते-जाते भी उनकी बिनाई चलती रहती. कमाल यह कि वे रास्ते चलते पसंद आने पर किसी के भी स्वेटर की डिजायन पलक झपकते आंखों में उतार लेतीं जो शीघ्र ही परिवार में किसी के स्वेटर में दिखाई दे जाता. बाद में अम्मा जी से स्वेटर बिनवाने की हम में होड़ ही लग जाती थी. हम माने उनके दामाद!
हां, नाटकों में नहीं, नाटकों के दरम्यान साक्षात जीवन में मुझे उनका दामाद बनने का गौरव हासिल हुआ.
-“अरे, नज़रबाग हेमा का दामाद हुआ ये!”.
“लाल मकान वाली हेमा?… अच्छा, गुड्डी का दूल्हा होगा ये!” कई बरस यह भी रहा मेरा परिचय. इस परिचय में बड़ा लाड़ होता था. ध्यान दीजिए कि इस परिचय में पं विद्या सागर जोशी का नाम नहीं है. ज्ञानी और योगी जोशी जी शास्त्रों, योग और तंत्र की अपनी एकांतिक दुनिया में रमते थे. कठिन से कठिन योगासन लगाने में प्रवीण. संस्कृत में उनके लिखे छंद गुरुभ्राता जितेंद्र चंद्र भारतीय के प्रकाशनों में छपते. उनकी लिखी कुछ संस्कृत रचनाएं आज तक अप्रकाशित रहीं क्योंकि वे प्रकाशन, आदि में रुचि ही नहीं लेते थे. योगासनों पर लिखी भारतीय जी की एक पुस्तक में योगासन लगाये विद्यासागर जी के चित्र मैंने उनके साढ़ू भगवती प्रसाद पंत के यहां देखे थे. ‘सारस्वत कुण्डलिनि महायोग- शक्ति-पात शास्त्र’ नाम से प्रकाशित ग्रंथ में उन्होंने अपना नाम ‘अनुवादक’ के रूप में दिया है. उनकी भूमिका के अनुसार उनके गुरु भाई जितेंद्र चंद्र भारतीय की वाणी से साक्षात जगद्म्बा सरस्वती ने शक्तिपात-महाशास्त्र का उच्चारण किया जिसे रिकॉर्ड कर लेने के बाद उन्होंने संस्कृत-मूल के साथ हिंदी में अनूदित कर लिखा.
बहरहाल, पारिवारिक और सामाजजिक रिश्ते बनाए हेमा ने. निभाया भी उन्होंने ही और खूब. इसलिए लड़के-लड़कियां भी हेमा के हुए और बहुएं तथा दामाद भी! हमारी जानकारी में उन दिनों वे अकेली महिला थीं जिनके बच्चे पिता की बजाय मां के नाम से जाने जाते थे.
……
अम्मा जी निपुण गृहस्थिन थीं और गज़ब की सामाजिक भी. चीनी मिट्टी के विशाल मर्तबानों में भरे तरह-तरह के अचार, कभी भी उपयोग में आ सकने वाली चीज़ों का अद्भुत पिटारा, सीमित आय में बड़े परिवार को शान से पालने की द्रौपदी के अक्षय-पात्र जैसी चमत्कारिक क्षमता, लखनऊ भर में फैले बिरादरों-मित्रों से रिश्तों का समानुपातिक निर्वाह, रत्याली-होली-कीर्तन-आदि महफिलों में प्राण फूकने से लेकर काम-काज वाले घरों में शकुनाखर (संस्कार गीत) गाने, ऐपण (अल्पना) डालने और स्वादिष्ट सिंगल (एक विशेष पकवान) पकाने तक, अम्मा जी हवा में टंगी रस्सी पर चलने वाली किसी नटनी के-से कौशल से ही यह सब साधा करती थीं. शास्त्री जी की सीमित आय में परिवार का गुजारा और बच्चों की अच्छी शिक्षा चलती थी तो अम्मा जी की वजह से. उनकी रिश्तेदारी और परिचित घरों में माताएं अपनी लड़कियों से कहतीं कि हेमा से सीखो जो मटर के छिलके भी छील कर स्वादिष्ट सब्जी बना लेती है. गोभी के डंठलका गूदा निकाल, गाजर-सेम के साथ उबाल कर पिसी राई के घोल में धूप दिखाने की बाद ऐसी कांजी बना देतीं कि पेट के कीड़े, जो दवा से न मरें, एक खुराब से बाहर निकाल आते. हमारे घर में आज भी जाड़ों में अम्माजी मार्का कांजी बनती है. खैर.
भोजन के निश्चित समय में दस मिनट की भी देर होने पर रसोई से उठ जाने वाले पं विद्या सागर जोशी जी के लिए ठीक समय पर विधि-विधान से पकाए आहार की थाली सजाना अगर अम्माजी के लिए पावन कर्तव्य और पत्नी-धर्म था तो रत्याली (बारात जाने के बाद वर के घर महिलाओं का रतजगा) या होली की बैठक में ढोलक बजाना, गाते-गाते किसी ननद या भाभी पर आशु छंद जोड़ना, और तरह-तरह के स्वांग करके महिलाओं की महफिल को लोट-पोट कर देना भी उनके लिए कम महत्वपूर्ण सांस्कृतिक ज़िम्मेदारी नहीं थी. औरतें कहतीं- हेमा के बिना तो महफिल में जान ही नहीं आती.
ताज़्ज़ुब होता है कि इतना सब कैसे निबाह लेती थीं वे. लता कहती है- “हम लड़कियां जो थीं उसकी मदद के लिए.” लेकिन मेरी टिप्पणी होती है कि अपनी लड़कियों को इतना ज़िम्मेदार और सक्षम बनाया किसने!
यह कहना कतई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अम्मा जी लखनऊ के पहाड़ियों के लिए समृद्ध सांस्कृतिक कोश थीं. उन्हें हर संस्कार के परम्परागत गीत, उनकी मौलिक धुनें, कुमाऊं (मूलत: अल्मोड़ा, दन्या के दीवानों के खानदान का रक्त उनकी रगों में बहता था)) के समस्त पर्व, रीति-रिवाज और विधि-विधान रटे हुए थे. परम आश्चर्य की बात यह कि वे कुमाऊं में कभी रहीं ही नहीं, जहां यह सब सीखतीं. उनका जन्म लखनऊ में नज़रबाग के उसी लाल मकान में हुआ था जहां उन्होंने अपनी आठ सन्तानों को जन्म दिया. शादी हुई उर्ग (पिथौरागढ़) के जोशियों के यहां, जहां वे रंग्वाली पिछौड़े के लम्बे घूंघट परमुकुट बांधे सिर्फ एक बार तभी गई थीं. बाकी का गवाह रहा नज़रबाग का वह लाल मकान जो उनकी पहचान का अभिन्न हिस्सा बना.
कहां से घोटा होगा उन्होंने कुमाऊं का सारा सांस्कृतिक कोश? दरअसल, उनकी गुरु थीं उनकी ईजा. बित्ते भर की उस ईजा में, जिसे सब नानी कहते थे, कुमाऊं का समस्त धार्मिक-सांस्कृतिक-जातीय भण्डार भरा हुआ था. कुमाऊं के किसी भी गांव का नाम लेने भर से वे उसके निवासियों का वंश-पुराण और रिश्तों की बेल बांच देतीं थी. नामकर्ण नानी का भी हुआ होगा लेकिन उनका नाम लोप हो चुका था. उनके श्राद्ध के समय जब पण्डित उन्हें ‘कृष्णानन्द भार्या’ कहकर तर्पण करा रहे थे तो हमने उनके नाम की जिज्ञासा की. तब पता चला था कि जन्मपत्री में उनका नाम बसंती देवी लिखा गया था. सबके लिए वे सिर्फ नानी थीं या ईजा , बस. लेकिन उनकी दूसरे नम्बर की बेटी ने उनका ज्ञान कोश हासिल करने के साथ-साथ अपना नाम भी ससम्मान ग्रहण किया- हेमलता यानी नज़रबाग लाल मकान वाली हेमा.
…….
अब नज़रबाग का लाल मकान बचा है न उसकी नाम धारी हेमा.
लाल मकान क्या छूटा, कई दुनियावी चीज़ों से अम्मा जी की पकड़ छूटनी शुरू हो गई थी. मुकदमेबाजी के एक अप्रिय प्रसंग के बाद जिस दिन अचानक वह मकान खाली करना पड़ा, पीढ़ियों से संचित कई चीजें अम्मा जी की गृहस्थी से बाहर हो गईं. उस रोज़ परिवार के अभिन्न से भी अभिन्न अंग दद्दा यानी जगदीश चंद्र जोशी, जो अपनी युवावस्था में नौकरी के बहाने बुआ हेमलता के घर चंद रोज को आये थे और आजीवन उसी घर-परिवार के होकर रह गये, और सदा सहायक पूरन मामा ने महानगर की सचिवालय कॉलोनी के जिस एक बेडरूम वाले फ्लैट का जुगाड़ किया, उसमें वह बड़ा परिवार तो जैसे-तैसे सिर छुपा सकता था मगर उसमें अम्मा जी के पुराने संदूकों की जगह बनती थीन तांबे व कांसे के विशाल खानदानी बर्तनों की. और भला अचार के वे विशाल मर्तबान फ्लैट की सीढ़ियों में सुरक्षित रह सकते थे क्या?
अत्यंत व्यावहारिक अम्मा जी ने ऐसी कई बहुत प्रिय चीज़ों को अपने जीवन से बिना शिकवा किये बाहर हो जाने दिया लेकिन जब गले में उपजी एक गांठ के विकराल रूप धरने से विद्या सागर जी अचानक इस असार संसार को विदा कह गये तो अम्मा जी की भीतरी-बाहरी दुनिया में हाला-डोला आ गया. तब पहली बार वे बिलखीं और टूटी दिखी थीं. इस आघात से सबसे पहले सम्भली भी वही थीं क्योंकि अभी तीन बेटियों और दो बेटों का घर परिवार बसाना था, जिनमें से तीन अभी पढ़ ही रहे थे. कमर कस कर वे फिर परिवार के मोर्चे पर डट गईं.
मुझे बार-बार लगता है कि हिन्दी के बहुत अच्छे कवियों में शामिल कुमार अम्बुज ने “एक स्त्री पर कीजिए विश्वास” शीर्षक कविता जैसे अम्मा जी को देख कर ही लिखी हो- “जब ढह रही हों आस्थाएं/ और भटक रहे हों रास्ते/ तब एक स्त्री पर कीजिए विश्वास/ वह बताएगी सबसे छुपा कर रखा एक अनुभव/ अपने अंधेरों से निकाल कर देगी वह एक कंदील.” कविता की इस स्त्री ही की तरह अम्मा जी ने तब सबको एक कंदील ही नहीं थमायी, अपने को भी सारी पहचानों के साथ उबार लिया. बड़े बेटे मनोज, जो हमारे मन्दा हैं, के सहारे उन्होंने बड़े परिवार की कश्ती खेनी शुरू की. उनके भीतर गज़ब का जीवट था और दुनियादारी की अद्भुत समझ.
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सचिवालय कॉलोनी के एक बेडरूम के फ्लैट से बादशाहनगर कॉलोनी के दो बेडरूम वाले फ्लैट में आते-आते जिंदगी ने फिर एक पटरी पकड़ ली थी जो निश्चय ही पहले जैसी नहीं हो सकती थी.शिकवा करना उन्हें आता न था. जो भी स्थिति सामने आई, उसी में सामंजस्य बिठाना और मजे से परिवार का जीवन सम्भालना-संवारना उन्हें बखूबी आता था. वे पछतावा करने और समय से व्यर्थ लड़ने की कोशिश करने वाली भी नहीं थीं.
उनकी सभी छह बेटियां अच्छा पढ़ लिख कर नौकरी वाली हुईं. वे देख कर खुश होती थीं. अम्मा जी ने स्वयं उस जमाने के हिसाब से अच्छी स्कूली पढ़ाई की थी. कभी-कभार चर्चा छिड़ने पर वे कहतीं- “मैं भी प्रिंसिपल होकर रिटायर हुई होती. भारती बालिका विद्यालय में पढ़ाने लगी थी. तुम्हारे पिता जी ने नौकरी करने नहीं दी.” यह भी वे बताती थीं कि अन्नपूर्णा टांगड़ी ने जब लखनऊ का भारतीय बालिका विद्यालय स्थापित किया तब शुरुआती ‘बहनजियों’ (अध्यापिकाओं)के नाते उसके लिए चंदा जुटाने को हम भी घर-घर जाते थे. लखनऊ के तत्कालीन नामी सेठ खुनखुन जी ने स्कूल के लिए काफी धन दिया था. अम्माजी के सम्पर्क काफी व्यापक अच्छे थे. नारायण दत्त तिवारी की पत्नी डॉ. सुशीला तिवारी उनकी सहेली थीं. उनके सभी प्रसव डॉ. तिवारी ने ही करवाए थे.
अम्माजी का जीवन संग्राम जारी थी मगर, निर्मम समय अपनी कीमत भी वसूल रहा था. चिंताओं की भीतरी उमड़-घुमड़ वे कभी बाहर आने नहीं देती थीं लेकिन मधुमेह उन्हें दीमक की तरह चाट रहा था. अगले कुछ वर्षों में पहले बड़ी बेटी की मौत और फिर एक हादसे में बड़ी बहू की दर्दनाक मृत्यु ने उन्हें खोखला ही कर दिया. तो भी उनमें खुद को पुनर्जीवित करने और हार न मानने की बड़ी क्षमता थी. उनकी जगह कोई भी दूसरा कभी का बिस्तर पकड़ लेता लेकिन वे उन पैरों से भी जीवन की डगर नापते रहीं जिन्होंने साथ देने से इनकार कर दिया था. एक मंजिल की सीढ़ियां उतरने में भले आधा घंटा लग जाय लेकिन दर्द से मुंह बनाने या हालात पर शिकायत करने की बजाय वे पहाड़ का कोई किसा या लोकोक्ति अथवा मुहावरा सुनाकर हंसती-हंसाती चलीं आतीं. अस्पताल भी उनको एक बार इसीलिए जीवित लौटा सका कि उनमें अदम्य जिजीविषा थी.
डाक्टर छोटे बेटे के साथ कुछ समय कश्मीर में गुज़ारने के बाद वे डाक्टर-द्वय बेटी-दामाद के साथ दिल्ली रहीं जिनकी सेवा-सुश्रुषा और अपनी जीवनी शक्ति से वे इतनी बेहतर और खुश हो गयी थीं कि वे उसी समय मेरे साथ लखनऊ लौटने को तैयार थीं जब मैं ज़रूरी काम से एक दिन के लिए दिल्ली गया था. वह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात साबित हुई. अगले ही महीने बिल्कुल अचानक उनके प्राण-पखेरू उड़ गए. उस दिन मैं इतना अस्वस्थ था कि उनके अंतिम दर्शन के लिए भी दिल्ली नहीं जा सका.
इससे भी ज़्यादा मलाल इस बात का है कि हम उनके समृद्ध सांस्कृतिक कोश को सम्भाल नहीं सके. उनके बिल्कुल ही अस्वस्थ होने से चन्द माह पहले लता के सुझाव पर हमने उनके स्वर में उन्हें कंठस्थ कुमाऊंनी लोक गीतों, होलियों आदि की रिकॉर्डिंग करने की योजना बनायी थी. हमारे घर में रिकॉर्डिंग होनी थी और अम्माजी खुद सोत्साह इसके लिए तैयार थीं. मानव जीवन के विभिन्न चरणों के क्रम से संस्कार गीत, शकुनाखर एवं लोक गीत और फागुन की चढ़ती मस्ती के क्रम से होलियां गाई जानी थीं. लेकिन रिकॉर्डिंग वाले ने ऐन चौराहे पर स्थित हमारे घर में निरंतर आते शोर के कारण किसी दूसरी जगह का सुझाव दे दिया. हम शांत जगह तत्काल खोज नहीं पाये और वक़्त ने अम्माजी को इतना मौका नहीं दिया. नज़रबाग लाल मकान वाली हेमा दिल्ली के निगम बोध घाट पर खाक में मिल गईं. लाल मकान पहले ही ज़मींदोज़ हो चुका था. आज वहां बहुमंजिला फ्लैट खड़े हैं.
लता के पास बची है अम्मा जी की पुरानी ढोलक जो वे उसे उपहार में दे गईं. साथ में कुछ पुर्चे-पर्चियां और एक छोटी डायरी जिनमें अम्मा जी ने गीत-होली-भजनएवं कुछ घरेलू नुस्खे लिख रखे हैं, यत्र-तत्र अपनी संक्षिप्त टिप्पणियों के साथ. अब वे सिर्फ कागज़ी हर्फ हैं. उनमें मूल सुर-ताल हैं न अम्मा जी की बुलंद आवाज़. वह सारा खज़ाना उन ही के साथ चला गया.
नवीन जोशी ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र के सम्पादक रह चुके हैं. देश के वरिष्ठतम पत्रकार-संपादकों में गिने जाने वाले नवीन जोशी उत्तराखंड के सवालों को बहुत गंभीरता के साथ उठाते रहे हैं. चिपको आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा उनका उपन्यास ‘दावानल’ अपनी शैली और विषयवस्तु के लिए बहुत चर्चित रहा था. नवीनदा लखनऊ में रहते हैं.
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बहुत सुंदर.