गणित से लड़के दूर- दूर भागते थे. इस पर अफसोस इस बात का था कि, भविष्य के बेहतर मौके, केवल इसी विषय में मौजूद बताए जाते थे. ‘अगर गणित के साथ अच्छे दर्जे में पास हो जाएँ’ तो, अनेक क्षेत्रों में अवसरों की भरमार बताई जाती थी. अच्छे वेतन वाली, अच्छी-खासी नौकरियाँ और न जाने क्या-क्या. बड़ी उम्र के फेलियर लड़कों ने कइयों के दबे हुए हौसलों को उभारा. सुलगती हुई आग को इस तरह से दहकाया कि, नये-नवेले लड़कों से ना करते नहीं बना. इस विषय के साथ खास बात यह थी कि, बिना बात के ही रसूख बन जाता था. एक खास किस्म के अहसास के साथ, रुतबा बस यूँ ही बढ जाता था. इस तरह से पुराने लड़कों ने गणित लेने के लिए कईयों को आमादा कर दिया. नये लड़कों ने भी सोचा, ‘जब जान बेचनी ही है, तो फिर सस्ती क्यों बेचें.’ गाँव भर में अच्छे स्टूडेंट के तौर पर प्रोजेक्शन मिलता रहेगा, ‘अच्छा-अच्छा मैथमेटिक्स है, तब तो खूब होशियार होगा’ सुनने की लालसा बरकरार रहती थी. गणित, लेने भर से ‘ऑटोमेटिकली हाइप’ मिलने की संभावना सी बनी रहती थी. तो अब बस, नक्कारा बजने की देर भर थी. इस आवो-ताब में आकर, कइयों ने गणित में दाखिला ले लिया. सब्जेक्ट ले तो लिया, लेकिन कुछ ही दिनों में समझ में आया कि, विषय उतना बुरा नहीं था, जितना बुरा था, उसकी चपेट में आना. किसी को भी इस बात को लेकर जरा भी संदेह नहीं रहा कि, सब्जेक्ट कठिन जरूर था. ‘बाई डिफॉल्ट’ विषय- शिक्षक उससे भी ज्यादा ‘कठिन’ निकले. अब लड़के विषय से ज्यादा, गुर्जी से भय खाने लगे. गुर्जी हरदम चेहरे पर सायास क्रोध ओढ़े रखते थे. जिससे उनकी आँखों में हरदम आग और शोले दहकते रहते थे. ऐसा वे एक खास मकसद से करते थे, ताकि यह भंगिमा, वक्त-जरूरत काम आए. उनके मुताबिक “कुछ नालायक, सब्जेक्ट को फालतू में बदनाम करते हैं. दरअसल वे खुद कूढ़मगज हैं. उनसे खुद से तो कुछ होता जाता नहीं, खामोखाँ विषय पर दोष मढ़ जाते हैं.” भविष्य को लेकर वे हरदम डराते रहते थे, ‘जब जूते घिसोगे, तब आटे-दाल का भाव मालूम चलेगा.’ बेकारी का तो वे बड़ा ही डरावना खाका खींचते थे. करनी-भरनी जैसा लोमहर्षक खाका. तला जा रहा है, डुबोया जा रहा है अथवा बड़े-बड़े दाँतो वाले आरे से दो भागों में चीरकर बराबर मात्रा में बाँटा जा रहा है. अंधकारमय भविष्य की बातें वे बड़ी तन्मयता से सुनाते थे. जिस लगन से वे सुनाते, उनकी हर बात पर यकीन करने का मन होने लगता था. इस बात का उन्हें पक्का विश्वास था कि, ‘लड़कों को गणित समझने की समझ नहीं है. जब हम समझाते हैं, तो इनका ध्यान, न जाने किधर रहता है.’
लड़कों ने उनके मनोविज्ञान को गहरे से पकड़ा हुआ था. वे जब भी आवेश में आते थे, तो स्त्रीलिंग में बोलने लगते थे. क्रिया शब्दों के बाहुल्य से लड़के सहज ही अनुमान लगा लेते थे कि, अब कहर बरपने ही वाला है. तो सहज अनुमान के सहारे, वे फौरन से पेश्तर सतर्क हो लेते थे.
एक दिन की बात है. वे कक्षा में पढ़ा रहे थे. ‘न्यूक्लियस’ से संबंधित कोई ‘न्यूमेरिकल’ था. तभी उन्होंने अनुभव किया कि, कोई लड़का उनकी बातों को खास तवज्जो नहीं दे रहा है. गुर्जी ने चौक मारकर उस लड़के का ध्यान आकर्षित किया. वे चौक का सटीक निशाना लगाते थे. मनचाहे लड़के पर चौक का टुकड़ा फेंककर मारते थे. क्या मजाल कि, कभी उनका निशाना चूका हो. खैर लड़का, बुरी तरह सकपकाया हुआ था. तो उसे खड़े होने का हुक्म जारी हुआ. वह मुजरिमों की तरह खड़ा होकर रह गया. वे उससे सवाल के आगे के स्टेप्स पूछने लगे. लड़के को सवाल की हवा भी नहीं लगी थी. नतीजतन, वह मुँह लटकाए, सिर झुकाए, निगाह नीची किए, धरती की तरफ देखने लगा. तो गुरु जी को शायद उस पर दया आ गई. उन्होंने उसे हिंट किया- कैथोड या एनोड. उसे प्रोत्साहित कर जवाब निकालने की भरपूर कोशिश की गई. लड़के ने बहुत संभलकर जवाब दिया- ‘एथोड’. गुरु जी के अलावा, कक्षा के लिए भी, एक किस्म से यह, एक नई किस्म का, एक नया सा पारिभाषिक शब्द था, जो कैथोड और एनोड के कहीं बीच में जाकर पड़ता था. जवाब सुनकर गुरुजी भौचक्के होकर रह गए. उन्होंने हैरत जताते हुए कहा, “तुम्हारे होश तो ठिकाने हैं?” फिर उसे चेतावनी सी देते हुए बोले, “जो मुँह में आए, बकते चले जाते हो. ये भी कोई तरीका हुआ भला. माना कि भगवान ने जबान दी है, लेकिन उसके साथ लगाम भी तो दी है.” थोड़ा थमकर दाद देनेवाले अंदाज में बोले, “रहम करो, मुझे बख्श दो. तुम्हें पढ़ाना हम जैसों के बूते की बात नहीं.” फिर प्रशंसा भरे स्वर में बोले, “तुम तो मध्यम मार्ग वाले निकले यार. ये तो संत महात्माओं का रास्ता हुआ. न अतिशय कायाक्लेश, न अतिशय भोग. ठीक बीचोबीच, पटरी वाला मध्यम मार्ग.”
फिर यकायक गियर बदलकर वे प्रार्थना करने पर उतारू हो गए, “तुम इस क्लास में कर क्या रहे हो प्रभु. ताज्जुब इस बात का है कि, आखिर अभी तक तुम्हें पद्मश्री क्यों नहीं मिली.”
गुर्जी की यही खास अदा दी. ‘नायाब जवाब’ सुनकर वे या तो पद्म-पुरस्कार देने की सिफारिश करने की बात करते थे अथवा ट्रिनिटी कॉलेज में दाखिले लेने का सुझाव. कहते थे, “मैं इस लायक नहीं हूँ. मेरी क्या बिसात कि तुमको पढ़ा सकूँ. मैं तो एक अदना सा मास्टर हूँ. मेरी रोजी-रोटी क्यों छीनते हो यार. मेरे बालबच्चे हैं. मेरी तुमसे हाथ जोड़कर विनती है कि, तुम तो फौरन ट्रिनिटी का रास्ता पकड़ लो.” वे शब्दों से मारते थे. विषबुझे बाण मारते थे. जुबान की गुलेल से फेंक- फेंककर तीर चलाते थे. इस वातावरण में मूकदर्शक बने रहना सबसे हितकर और सुरक्षित उपाय बताया जाता था. दुनियावी समझदारी वाले लड़के, तो जड़वत् खड़े होकर रह जाते. क्या मजाल कि, कंठ से कोई स्वर फूटे. आपको लाख जवाब आता हो, कौन बैर मोल ले. क्योंकि एक जवाब से जान छूट जाए, जरूरी नहीं . एक जवाब का मतलब शांति स्थापित हो जाए, इस बात की कोई भी गारंटी नहीं थी. यह अंतहीन सवालों का सिलसिला भी हो सकता था. तो पागल कुत्ते ने काटा हो, ऐसी भी कोई बात नहीं थी. तो फिर न्योता ही क्यों दे. इसलिए उस कक्षा में, ‘मूक शैली का मौन संभाषण’ सबसे सुरक्षित उपाय बताया जाने लगा. उनके सवाल पूछने पर, लड़के एक-से-एक हथकंडे अपनाने लगे. लड़कों की इस भंगिमा को देखते ही, वे आपे से बाहर होने लगते थे. गुर्जी, जुबानी गुलेल चलाते थे, जिससे वे भारी-भरकम शब्द फेंका करते थे. अकस्मात् शब्दबाणों की बौछार कर डालते . बोलते बहुत ऊँचा थे, पिच ऊँची, वॉल्यूम उससे भी ऊँचा. पढ़ाते-पढ़ाते शायद आदत सी पड़ गई थी. शायद जब्बर विषय को पढ़ाने का असर था. तो उनको जवाब देना, सोए पड़े बिच्छू को सहलाने जैसा लगता था. शिष्यों पर वे तरह-तरह की तोहमत मढ़ते. ‘घोंघाबसंत’ एवम् ‘बजरबट्टू’ उनका तकिया कलाम था. दो-चार अदद जुमले सुनकर, लड़के सुरक्षित रास्ता तलाश लेते थे. इस तरह से वे अपना वर्तमान सुरक्षित कर लेते थे. ‘भविष्य की तो भविष्य में देख लेंगे’ टाइप का साहस, तो उस उम्र में वैसे भी, भरपूर मात्रा में पाया जाता है.
घोंघाबसंत, वे उस लड़के को कहते थे, जो उनके ब्लैकबोर्ड पर सवाल लगाने के बाद भी, सवाल का जवाब न दे सके. जो सवाल को दोहराने में एकदम असमर्थ हो. उनका अभिप्राय, लड़कों की सीखने की धीमी गति को लेकर रहता था. घोंघाबसंत अर्थात् स्नेल. जंतु-जगत के आर्थोपोडा परिवार का यह सदस्य, समस्त प्राणियों में सबसे स्लो बताया जाता है. और कोमलकांत भी. पंचतंत्र की कथाओं में कछुए की धीमी गति का उल्लेख मिलता है, लेकिन यह तो हुई गुजरे जमाने की बात . स्नेल की गति, कच्छ महाराज से कई गुना कम होती है. जीवशास्त्री बताते हैं कि, यदि वह अनवरत चलता रहे, न रुके, न थके. न विश्राम करे, न नींद ले. तो लगातार चलते रहने पर, वह तीस घंटे में एक किलोमीटर की दूरी तय कर लेता है. तो एक मिनट में तय की गई दूरी=1000/30×60=.55मीटर. धीमेपन को लेकर, एक बहुत ही लोक प्रसिद्ध कहावत है, नौ दिन चले अढ़ाई कोस. एक कोस तीन किलोमीटर के करीब पड़ता है. नौ दिन अर्थात् 9×24×60 मिनट. एक मिनट में तय की गई दूरी=7500/9×24×60=.57मीटर. इस गणना से साबित होता है कि, धीमेपन के मुकाबले में घोंघाबसंत कहावतों से भी बाजी मार ले जाते हैं. तो गुरुजी को शिष्यों को ‘एक्सट्रीम उपमा’ देने में महारत हासिल थी.
सवाल पूछने पर अगर लड़का तनकर खड़ा हो जाए और उसे कोई जवाब न सूझे, तो गुरुजी हाथ फैलाकर बहुत ही जोरदार भंगिमा बनाते हुए कहते थे, “हो गए बजरबट्टू की तरह खड़े. अरे, जवाब क्यों नहीं देता. गणित पढ़ने के लिए किसी डॉक्टर ने तो बताया नहीं. क्यों मेरा खून पी रहे हो.”
बजरबट्टू, खेतों में स्थापित किए जाते हैं. पक्षी, फसलों का बहुत नुकसान करते हैं, तो चिड़ियों को चौकीदारी करते मनुष्य की उपस्थिति का भ्रम जताने के लिए खेतों में बजरबट्टू खड़े किए जाते हैं. तरीका बहुत ही आसान है. पहले, लकड़ी का हाड़ तैयार किया जाता है. फिर उसे पुरानी चीजों का बाना पहनाया जाता है. टूटी-फूटी हांडी पर, आड़ी- तिरछी रेखाएँ खींचकर उसकी मुखाकृति उकेरी जाती है. इस तरह से सजा- धजाकर, बजरबट्टू पूर्णता को प्राप्त होता है.
नए-नवेले, नौसिखए पक्षी तो उससे बहुत भय खाते हैं. उस पर नजर पड़ते ही, उनका तो कलेजा ही मुँह को आने लगता है. भयावह, डरावना सा पहरेदार. तो वे उस खेत में, जिसमें बजरबट्टू दिखाई दे, प्रवेश करने से भी कतराते हैं. उस दिशा में फटकते तक नहीं. मन मारकर रह जाते हैं. ‘जान है तो जहान है’ सोचकर दाना चुगना, फौरन मुल्तवी कर देते हैं. कुल मिलाकर, बजरबट्टू को देखते ही ‘अंडर ट्रेनिंग’ पक्षी फसल का नुकसान करने की सोच भी नहीं सकते. इस आशय के प्रोग्राम को फौरन स्थगित कर डालते हैं. इसके विपरीत, अनुभवी पक्षियों पर तो उसका रत्ती भर असर नहीं पड़ता. लंबे अनुभव के चलते, वे इतने ढीठ हो जाते हैं कि, जब कभी दाना चुगते-चुगते थक जाते हैं, तो अल्पकालिक विश्राम के लिए, बजरबट्टू की फैलाई गई बाँहों का सहारा लेने लगते हैं. परम ढीठ पक्षी तो, ऐन उसके सिर के ऊपर बैठकर आराम फरमाते हैं. मानों दुनिया को मुँह चिढ़ा रहे हों. और वहीं पर बाली ले जाकर, लेटे-लेटे उसमें से दाने चुगते रहते हैं. एक तरह से गजब की रईसी दिखाते हैं. निष्प्राण होने की वजह से, बेचारा बजरबट्टू, किसी किस्म की प्रतिक्रिया अथवा विरोध करने की स्थिति में नहीं रहता. उसे लगाने का ‘परपज डिफीट’ हो जाता है. संभवतः गुरु जी के संबोधन का आशय, इसी अवस्था से हुआ करता था. एक दिन की बात है. क्लास में ‘लिमिट-कंटिन्यूटी’ का चैप्टर पढ़ाया जा रहा था. एक सवाल हल करने को दिया गया था. कई स्टेप्स करके, वह सवाल हल होना था. एक लड़के ने कोई जुगत भिड़ाई. बल्कि उसने ‘अक्लमंदी का सिक्का जमाने की कोशिश की’ कहना ज्यादा मुनासिब होगा. उस तरकीब में बिना सवाल लगाए, सीधे नतीजा निकलता था. एक लाइन भी हल नहीं की, बल्कि मात्र दो अक्षरों में डायरेक्ट नतीजा निकालके धर दिया. मास्टर जी हैरान होकर रह गए. वे उस दशा में थे, जिसे कशमकश कहना ज्यादा उपयुक्त होगा. गुरु जी ने हैरत से आँखें फाड़कर, उसके सवाल को देखा. फिर उसकी छीछालेदर करनी चाही, तो लड़का अकड़कर बोला, “यह फार्मूला भी तो लगता है गुर्जी.”
आशंका मिश्रित आश्चर्य जताते हुए गुर्जी बोले, “अच्छा! हमें तो मालूम ही नहीं था. ये हैरतअंगेज फॉर्मूला आखिर तुम लाए कहाँ से.”
तो लड़का इत्मीनान से बोला, “डी एल हॉस्पिटल रूल, गुर्जी.”
गुर्जी कुछ सोचकर बोले, “बेशक, ये फार्मूला है तो, लेकिन वो तो बड़ी क्लासेस में चलता है महाराज. ‘एलिमेंट्री कैलकुलस’ में इसे क्यों भिड़ा रहे हो . यहाँ उसका ‘जबर-जोर’ नहीं चलेगा. कम-से-कम मेरी क्लास में तो नहीं चलेगा. पहले बेसिक्स तो क्लियर कर लो महाराज. जब वहाँ पहुँच जाओगे, अगर कभी पहुँच पाए, तो वहाँ ठाठ से लगाते रहना. अभी तो बख्श दो.”
लड़का मचलकर बोला, “लेकिन ‘इन प्रिंसिपल’ तो सही है, गुर्जी.”
गुर्जी का लहजा तुर्श हो चला था. हाथ जोड़कर पूरी अदाकारी के साथ बोले, “तुम अपना बोरिया बिस्तर समेट लो और बर्कले मैशाच्यूट्स, प्रिंसटन, स्टैनफोर्ड, जहाँ मर्जी आए वहाँ के लिए यहाँ से फौरन निकल लो. कहीं ऐसा न हो कि, लगा-लगाया जहाज छूट जाए. वहाँ तुम्हारी दाल खूब गलेगी. यहाँ तो मैं तुम्हारी हांडी नहीं पकने दूँगा.”
यह बात दीगर रही कि, लड़के के इरादे नेक थे और नीयत साफ. इसलिए उसने गुर्जी के परामर्श को खास तवज्जो नहीं दी.
तो लड़के जान पर खेलकर गणित पढ़ रहे थे. उनकी कक्षा शुरू होते ही, कोई इष्ट देवता को स्मरण करता, तो कोई सीने पर सलीब बनाकर प्राण रक्षा की भीख माँगता.
गुर्जी, ब्लैकबोर्ड पर खड़े होकर सवाल लगा रहे थे. तभी उन्होंने कनखियों से देखा कि, एक लड़का सवाल पर देखने के बजाय, खिड़की से बाहर ध्यान लगाए हुए था और कुदरत के नजारों में ज्यादा दिलचस्पी ले रहा था. गुर्जी को उसका इरादा कुछ संगीन सा नजर आया. फलस्वरूप उनकी एकाग्रता भंग होकर रह गई. लड़के को खड़े होने का हुक्म मिला, तो वह हक्का-बक्का होकर रह गया. उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया. अकस्मात् वह मजलूम और मुसीबतजदा सा दिखने लगा. उन्होंने उस पर पढ़ाए जा रहे सवाल के बारे में, सवाल दागने शुरू कर दिए. लड़का एक भी जवाब नहीं दे पाया. गुरु जी ने आंखें सिकोड़ी और उसे कड़ी नजर से देखा. उससे नोट्स दिखाने की दरियाफ्त की, तो वह कहे के मुताबिक, कुछ भी नहीं दिखा पाया. गुर्जी तहकीकात करने पर उतारू हो गए. उसकी हरकतों से वे पूरी तरह वाकिफ थे. पहली ही नजर में ताड़ गए थे कि, इसका ध्यान कहीं और है. दरअसल लड़के पढ़ाई को लानत मानते थे और बस्ता ढोना मजूरों का काम. एक सोलह पेजी नोटबुक रहती थी, जो उन दिनों खासी लोकप्रिय थी. उसके साथ काफी सहूलियत रहती थी. चार ‘फोल्ड’ के साथ वह आसानी से पिछली पॉकेट में आ जाती थी. हाथ फ्री हों, तो हाथ हिलाते हुए टहलने का आनंद ही कुछ और होता है. ऐसी भंगिमा में चलने में, लड़के बड़प्पन समझते थे. तो मास्टर जी ने लड़के की जामातलाशी ली. शीघ्र ही उन्होंने वह सोलह पेजी दस्तावेज बरामद कर लिया. उत्सुकता में आकर, वे उस संग्रह के पन्ने पलट-पलटकर झाँकने लगे. उन्हें भारी विस्मय हुआ और वे हैरत में पड़कर रह गए. इलेक्ट्रिसिटी से लेकर एटॉमिक फिजिक्स तक और महाकवि माघ से लेकर गार्डनर तक के नोट्स उस छोटे से अद्भुत संग्रह में लिए गए थे. जो वह पढ़ा रहे थे, उसका एक कतरा तक नहीं दिखाई दिया, तो इस बात को वे उसकी पढ़ाई के प्रति गंभीरता का पर्दाफाश मान बैठे. सवा सौ लड़कों की क्लास में, उन्होंने पढ़ाकू लड़कों की तरफ मुँह किया और उस नोटबुक को हवा मे लहराया, जिस तरह से जिरह करता हुआ वकील, कोई अकाट्य दस्तावेज हाथ लग जाने पर करता है. ऐसा दस्तावेज, जिस पर मुकदमे की हार-जीत टिकी हो. ड्रैमेटिक अंदाज में वह उसे, अदालत को विजय-चिह्न के रूप में दिखाता है. तो इस दलील का लड़के पर कोई खास असर नहीं पड़ा. यहाँ पर भी उसने चालाकी दिखाई. गुर्जी से निगाह बचाकर, उसने उन लड़कों की तरह सीना फुलाकर गर्व से देखा. ऐसी निगाह से देखा, जैसे आढ़ती पल्लेदारों को देखता है. तो मास्टर जी को कहना पड़ा, “यह तो तुम्हारी जाती जिंदगी की बातें हुई. चलो, अब उस सवाल पर आते हैं, जिसे हम अभी-अभी लगा रहे थे.”
उन्होंने उससे आगे के स्टेप्स पूछ, तो लड़का घनघोर रूप से सकपका गया. हालत एकदम खराब. उसे उम्मीद ही नहीं थी, कि वह कभी रंगे हाथ भी पकड़ा जा सकता है. अचानक उसे बोध हुआ कि, उसके मुँह से आवाज निकलनी बंद हो गई है. उसकी हालत ऐसी हो गई कि, जीभ तालू से चिपककर रह गई. वाणी एकदम असहयोग कर बैठी. मौके का फायदा उठाते हुए गुर्जी ने उसके साथ चूहे-बिल्ली का खेल शुरू कर दिया. चूहा एकदम हक्का-बक्का होकर रह गया. सवाल मे किसी आकृति का एरिया निकालना था. इसलिए शुरुआत में ही ‘डबल इंटीग्रेशन’ का निशान लगा हुआ था. सवाल की इबारत, ब्लैकबोर्ड पर दर्ज थी. इस अफरातफरी के माहौल में, चूहे का आत्मविश्वास जाता रहा. वह सरल-से-सरल सवाल का जवाब भी नहीं दे पाया. गुर्जी ने पैंतरा बदलते हुए कहा, “चलो छोड़ो. मि.प्यारेलाल, तुम तो बस इतना बता दो कि, शुरुआत में जो निशान बना है, वो है क्या बला.”
चूहा आकस्मिक हमले की चपेट में था और उस असर से अभी तक उबर नहीं पाया था. वह अवाक् होकर ब्लैकबोर्ड की तरफ ताकने लगा. गुर्जी ने एक नया पैंतरा आजमाया. झट से अमिताभ बच्चन की नृत्य- मुद्रा बनाई अर्थात् बाएँ हाथ के हथेली पर, दाहिने हाथ की कोहनी टिका दी. फिर बारी-बारी बारी से कोहनियों को परस्पर ‘एक्सचेंज’ किया. अंत में हथेली का फन फैलाकर उससे पूछा, “ब्लैकबोर्ड पर कुछ दिखा! फनैल साफ दिख रहा होगा, फनैल. अरे हाँ, कहीं तुम्हें नाग-नागिन का जोड़ा तो नहीं दिखाई दिया.”
तो गुर्जी, बोल बोलकर खटिया खड़ी करके रख देते थे. बोल, ऐसे बोलते कि, शिष्य पानी-पानी होकर रह जाता. वाचिक परंपरा से सजा देने के, वे घोर हिमायती थे. केवल बोल बोलने से ही, वे तबीयत बाग-बाग कर जाते थे. फलस्वरूप बाग-बगीचों, अमराइयों में छुपने वाले लड़के, उनके स्कूटर का नंबर जबानी याद रखते थे. स्कूटर की झलक दिखी नहीं कि, प्रच्छन्न वेश धरकर फौरन वहाँ से भाग जाते. गुर्जी का क्या भरोसा. वे मजमा लगाने में, तनिक भी विलंब नहीं करते थे. रुकने पर हरपल खतरा मंडराता रहता था. हाथ पड़े नहीं कि, चौराहे पर इज्ज़त फींचकर रख देंगे.
हाँ, बस एकाध मौका याद पड़ता है, जब उन्होंने किसी को शारीरिक क्षति पहुंचाई हो.
उस दिन वे कक्षा में कोई ‘खास’ चैप्टर पढ़ा रहे थे. उस चैप्टर में एक सवाल था, जो घुमा-फिराकर अक्सर परीक्षा में पूछा जाता था. गुर्जी, उस सवाल को स्टेपवाइज समझाना चाहते थे. उन्होंने ब्लैकबोर्ड पर सवाल लगाना शुरू ही किया था कि, सहसा एक लड़के ने उनका ध्यान खींच लिया. वह खिड़की से प्राकृतिक छटा को देखने में व्यस्त था. गुर्जी की एकाग्रता में सचमुच ही विघ्न पड़ चुका था. इस बात का, उन्होंने गंभीरता से नोटिस लिया. समझाइश वाले अंदाज में उससे बोले, “माना कि, तुझे अपना खयाल नहीं है, तो कम-से-कम औरों का खयाल तो रख. भाई मेरे, कम-से-कम क्लास पे तो रहम कर.”
एक तरफ वे लड़कों को उस सवाल पर रिझाना चाहते थे, कहाँ उसने उन्हें खिझाकर रख दिया. गुर्जी ने मजबूरी जताते हुए उससे कहा, “यार, मुझे गुस्सा मत दिलाओ. अगर कहीं मुझे सचमुच गुस्सा आ गया, तो मैं आपा खो बैठूँगा.”
इस सबके बावजूद लड़के ने ऐसी भंगिमा बनाई, मानों वह कक्षा के किसी लेन-देन में नहीं पड़ना चाहता हो. इस चेतावनी पर उसने कान तक नहीं दिया. गुर्जी ने उसे फिर से आगाह किया, “अगर तुम्हारे यही हाल रहे तो फिर तुम्हारा भगवान ही मालिक है. मुझे हाई बीपी हैं और तुम्हारी इन हरकतों की वजह से वह कभी भी उछाल मार सकता है. अगर ऐसा हो गया, तो फिर मुझे दोष मत देना. मैं अपनी पे आ गया, तो तुम्हें ढ़ूँढ़ते जगह नहीं मिलेगी. फिर तुम्हारी खैर नहीं.”
यह सूचना देते-देते उनका बीपी सचमुच तेजी पकड़ चुका था. देखते-देखते अचानक से उफान पर जा पहुँचा. क्लास, हैरान होकर रह गई. ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था. गुर्जी, विद्युतगति से वहाँ जा पहुँचे. एक ही फलाँग में जा पहुँचे थे. एक साथ तीन-चार लाईनें कूद बैठे. फिर क्या था. आव देखा न ताव और सीधे उस पर टूट पड़े.
बहुत ही अल्प समय में, उसके क्षणभंगुर शरीर का वे जो-जो कर सकते थे, उन्होंने वो-वो किया. इतना कुछ करने के बावजूद, कमबख्त बीपी इतना ढ़ीठ निकला कि, नीचे उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था. गुर्जी असमंजस में पड़े रहे. थक भी गए थे, शायद. अब करें तो क्या करें. बीपी को किसी तरह शांत करने के लिए उन्होंने हर तरह से हाथ आजमाए. फिर उसको ऐसे उठाया, जैसे किसी पदार्थ को उठाया जाता है. गर्मजोशी में आकर उन्होंने, उसे गल्लाबोरी की तरह डेस्क के नीचे फेंक दिया. डेस्क की निचली सतह मजबूत लोहे की बनी थी. बोरा फेंकते ही, भड़ाम की आवाज आई. जो जाहिरा तौर पर, बोरे और आयरन- फ्रेम के परस्पर टकराने से आई थी. भड़ाम सुनकर भी बीपी की भड़ास नहीं उतरी. उसमें उछाल पूर्ववत् कायम थी. किसी भी तरह नीचे उतरने का नाम नहीं. गुर्जी असमंजस में पड़कर रह गए. लड़के का अधिकांश हिस्सा डेस्क के नीचे छुपा हुआ था, कमर से नीचे का हिस्सा अभी भी बाहर था. क्रोध किसी मर्यादा को नहीं मानता, साथ ही विवेक का ह्रास तो करता ही है. गुर्जी का संयम जाता रहा. उस असुरक्षित हिस्से पर उन्होंने दाँत गड़ा दिए. स्थान भेद की महिमा का खयाल तक नहीं रखा. दाँतों के नवीन प्रयोग से लड़का जोरों से चीखने लगा. चीख सुनते ही रक्तचाप को रहम आया और वह क्रमशः ठंडा पड़ता चला गया. हालांकि उन्होंने पेट्रोल से आग बुझाने की कोशिश की थी, लेकिन जिस उत्साह और लगन से उन्होंने इस मुहिम को अंजाम दिया, उसने सबको हैरत में डालकर रख दिया.
छुट्टी के बाद लड़कों ने विक्टिम से सहानुभूति जताई. उसे भरोसा दिलाया कि, ‘जब तुम्हारी ‘सद्गति’ हो रही थी, हमें बहुत डर लगा. खासकर डेस्क के नीचे टकराने पर तो ऐसा लगा कि, हो-न-हो, कहीं तुम्हें टेटनस न हो जाए, लेकिन गुर्जी बड़े दयालु हैं. उन्होंने इंजेक्शन देकर, इस खतरे को टाल दिया. जो मर्ज दे, वही दवा भी दे, यही तो भगवान की लीला है.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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वाचिक परंपरा से सजा देने तथा बीपी वाले प्रकरण से खूब आनंद आया।