इस तस्वीर को ऊपर से नीचे तक गौर से देखे जाने की जरूरत है. सबसे ऊपर रेलवे की पटरी है. इसे बनाने में लगे लोहे की भी कहानी होगी. जमीन के भीतर से अयस्क निकाल कर उसे भट्टी तक पहुंचाने तक कई हाथों-कन्धों का श्रम लगा होगा. अयस्क को गलाने में लगे कोयले को निकालने के लिए जो जन धरती के गर्भ में घुसे होंगे उनके अपने घर-माँएं-बच्चे-त्यौहार-लोकदेवता और बचपन रहे होंगे. लोहे के गर्डर बनाने और उन्हें इस फोटो वाले स्पॉट तक लाने में भी ऐसे ही कितने प्राण लगे होंगे. इन छोटी-बड़ी कहानियों को बहुत लंबा खींचा जा सकता है लेकिन हमें फोटो को आगे देखने का काम निबटाना है.
(Column by Ashok Pande)
सीमेंट से बने जिन तख्तों के ऊपर लोहे के स्क्रू गाड़ कर पटरी को बिठाया गया है, उनके पास अलग कहानियां हैं. पटरियों के बीच पड़ी रोड़ियां देख कर आपको दस-बारह रुपये रोज कमाने के लिए अपनी उँगलियों को आठ-आठ घंटे तक हथौड़ी और पत्थर के बीच रख देने की किसी इंसान की विवशता याद आनी चाहिए. मैं इंसान को प्रकृति के दिए हुए सबसे उत्कृष्ट उपहार यानी उसकी उँगलियों पर कुछ देर ठहरना चाहता हूँ. इन उँगलियों के बगैर न गिटार बजाया जा सकता है, न चित्र बनाया जा सकता है, न कीबोर्ड थेचा जा सकता है. इन उँगलियों के बगैर पत्थर की रोड़ी भी नहीं बन सकती.
फोटो के बीचोबीच दस सूखी रोटियाँ हैं. रोटियों के बारे में कुछ लिखना होता है क्या? आप सब जानते हैं रोटी क्या-कैसी होती है.
आज तड़के जब दुनिया सो रही थी कुछ मजदूर अपने घरों को लौट रहे थे ताकि अपनी मिट्टी में पहुंच कर चैन से मर सकें. ये रोटियाँ मौत के उसी सफ़र में थकान लगने पर काम आनी थीं. फिर यूं होता है कि धड़धड़ करती एक मालगाड़ी आती है और उनकी बेमतलब देहों के चीथड़े बना कर चली जाती है. मजदूरों का काम आसान हो जाता है. नामुराद रोटियाँ बची रह जाती हैं.
इस फोटो को देख चुकने के बाद से मैं हतप्रभ और सुन्न हूँ. आलोक धन्वा की कविता गूंज रही है:
कैसे देखते हो तुम इस श्रम को?
भारतीय समुद्र में तेल का जो कुआँ खोदा
जा रहा है
क्या वह मेरी ज़िन्दगी से बाहर है?
क्या वह सिर्फ़ एक सरकारी काम है?
कैसे देखते हो तुम श्रम को!
सवाल पूछना मेरा काम नहीं है. एक समाज के रूप में मर चुकी मनुष्यता से कौन सवाल पूछ सकता है! सिवाय धूप में सूख रही इन रोटियों के जिन्हें बरामदगी रजिस्टर में मौके से मौजूद सबूत के तौर पर दर्ज कर कुछ समय तक सहेज कर रखा जाएगा जब तक कि उनमें से फफूंद न उठने लगे.
(Column by Ashok Pande)
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पहाड़ की यादें बुलाती हैं और रुलाती हैं। इसके लिए उत्तरदाई भी स्वयं हम ही हैं। इस पापी पेट के कारण पहाड़ से भाग आया और अब समय निकल चुका है अर्थात पहाड़ की ऐसी दशा के लिए मैं भी उसका मुजरिम हूं।
मैं गाँव हूँ, मैं वहीं गाँव हूँ जिसपर ये आरोप है कि यहाँ रहोगे तो भूखे मर जाओगे, मैं वहीं गाँव हूँ जिस पर आरोप है कि यहाँ अशिक्षित लोग रहते है, मैं वहीं गाँव हूँ जिस पर असभ्यता और जाहिल गवाँर का भी आरोप है।
हाँ मैं वहीं गाँव हूँ जिस पर आरोप लगाकर मेरे ही बच्चे मुझे छोड़कर दूर बड़े बड़े शहरों में चले गए हैं, जब मेरे बच्चे मुझे छोड़कर जाते हैं मैं रात भर सिसक सिसक कर रोता हूँ, फिर भी मरा नही, मन में एक आश लिए आज भी निर्निमेष पलकों से बांट जोहता हूँ शायद मेरे बच्चे आ जायें, देखने की ललक में सोता भी नहीं हूँ।
लेकिन अफसोस जो जहाँ गया वहीं का हो गया, मैं पूछना चाहता हूँ अपने उन सभी बच्चों से क्या मेरी इस दुर्दशा के जिम्मेदार तुम नहीं हो? अरे मैंने तो तुम्हे कमाने के लिए शहर भेजा था और तुम मुझे छोड़ शहर के ही हो गए, मेरा हक कहाँ है?
क्या तुम्हारी कमाई से मुझे घर, मकान, बड़ा स्कूल, कालेज ,इन्स्टीट्यूट, अस्पताल,आदि बनाने का अधिकार नहीं है? ये अधिकार मात्र शहर को ही क्यों?? जब सारी कमाई शहर में दे दे रहे हो तो मैं कहाँ जाऊँ? मुझे मेरा हक क्यों नहीं मिलता?
इस कोरोना संकट में सारे मजदूर गाँव भाग रहे हैं, गाड़ी नहीं तो सैकड़ों मील पैदल बीबी बच्चों के साथ चल दिये आखिर क्यों? जो लोग यह कहकर मुझे छोड़ शहर चले गए थे कि गाँव में रहेंगे तो भूख से मर जाएंगे, वो किस आश विस्वास पर पैदल ही गाँव लौटने लगे??
मुझे तो लगता है निश्चित रूप से उन्हें ये विस्वास है कि गाँव पहुँच जाएंगे तो जिन्दगी बच जाएगी, भर पेट भोजन मिल जाएगा, परिवार बच जाएगा। मन को शांति मिलेगी सच तो यही है कि गाँव कभी किसी को भूख से नहीं मारता।
आओ मुझे फिर से सजाओ, मेरी गोद में फिर से चौपाल लगाओ, मेरे आंगन में चाक के पहिए घुमाओ,मेरे खेतों में अनाज उगाओ,खलिहानों में बैठकर आल्हा खाओ,खुद भी खाओ दुनिया को खिलाओ,महुआ ,पलास के पत्तों को बीनकर पत्तल बनाओ, गोपाल बनो, मेरे नदी ताल तलैया, बाग,बगीचे गुलजार करो, बड़े बुजुर्गो की दांती पीस पीस कर प्यार भरी गालियाँ, अपने काका के उटपटांग डायलाग, अपनी चाची ताई और दादी की अपनापन वाली खीज और पिटाई, रामबाबू हलवाई की मिठाई कल्लो ठाकुर की हजामत और मोची की दुकान,भड़भूजे की सोंधी महक,चना बथुआ का रायता बाजरा की रोटी दही छाच और गुड सक्कर ये सब आज भी तुम्हे पुकार रहे है।
मैं तनाव भी कम करने का कारगर उपाय हूँ, मैं प्रकृति के गोद में जीने का प्रबन्ध कर सकता हूँ। मैं सब कुछ कर सकता हूँ !बस तू समय समय पर आया कर मेरे पास, अपने बीबी बच्चों को मेरी गोद में डाल कर निश्चिंत हो जा,दुनिया की कृत्रिमता को त्याग दें।फ्रीज का नहीं घड़े का पानी पी, त्यौहारों समारोहों में पत्तलों में खाने और कुल्हड़ों में पीने की आदत डाल, अपने मोची के जूते, और दर्जी के सिरे कपड़े पर इतराने की आदत डाल,हलवाई की मिठाई, खेतों की हरी सब्जियाँ,फल फूल,गाय का दूध ,बैलों की खेती पर विस्वास रख कभी संकट में नहीं पड़ेगा।हमेशा खुशहाल जिन्दगी चाहता है तो मेरे लाल मेरी गोद में आकर कुछ दिन खेल लिया कर तू भी खुश और मैं भी खुश हूं।