वैश्विक स्तर पर चिंता का विषय बने जलवायु परिवर्तन के असर से 71 फीसद वन भूभाग वाला उत्तराखंड भी अछूता नहीं है. असर उत्तराखंड में वन्यजीवों पर ही नहीं वनस्पतियों पर भी दिखाई देने लगा है. वे भी अपनी जगह बदलती नजर आ रही हैं. यहां तक कि ऐसे वन्यजीव जो पहले उत्तराखंड में नहीं मिलते थे. अब वे राज्य में मिल रहे हैं. वनस्पतियों ने न सिर्फ अपना चक्र बदला है बल्कि वे अपना क्षेत्र भी बदल रही हैं.
पृथ्वी का औसत तापमान अभी लगभग 15 डिग्री सेल्सियस है, हालाँकि भूगर्भीय प्रमाण बताते हैं कि पूर्व में ये बहुत अधिक या कम रहा है. लेकिन अब पिछले कुछ वर्षों में जलवायु में अचानक तेज़ी से बदलाव हो रहा है. मौसम की अपनी खासियत होती है, लेकिन अब इसका ढंग बदल रहा है. गर्मियां लंबी होती जा रही हैं, और सर्दियां छोटी. पूरी दुनिया में ऐसा हो रहा है. यही है जलवायु परिवर्तन.
उत्तराखंड राज्य में मध्य हिमालयी क्षेत्र की पारिस्थितिकी और वनस्पतियों के लिए खतरा साबित हो रहा है. क्लाइमेट चेंज से यहां ट्री लाइन (वह सीमा जिसके आगे अथवा ऊपर वृक्ष नहीं उगते) प्रभावित हुई है तो सदाबहार बांज के वनों में कार्बन अभिग्रहण क्षमता में कमी दर्ज की गई है. राज्य वृक्ष बुरांश के फूल वक्त से पहले खिलने लगे है.
रिसर्चर विक्टर स्मेटसेक ने 1973 में पेपर पब्लिश कर बताया था कि भीमताल झील में गर्मियां बिताने आने वाला एक जल पक्षी पॉन्ड हेरन सर्दियों में भी यहीं बसने लगा है. पूर्वी हिमालय की हाक मोथ जो पश्चिमी हिमालय में नहीं मिलती थी, अब वहां भी मिलने लगी हैं. उत्तराखंड में प्रवासी पक्षियों में रेड काइट का आगमन भी इस बदलाव की ओर इशारा करता है. भारत में भी कई पक्षी प्रजातियां अपने मूल स्थानों की बजाए दूसरे जगहों पर नजर आने लगी हैं.
नैनीताल झील के गिरते जलस्तर की वजह भी जलवायु परिवर्तन मानी जा रही है.बीते पांच साल में यह पहला मौका है जब फरवरी में ही नैनीताल झील का जलस्तर करीब डेढ़ फुट कम हो गया था. जलवायु परिवर्तन की वजह से लोगों की जीविका सुधार को लेकर चल रही योजनाएं भी प्रभावित हुई हैं. इनमें अंगोरा शशक पालन योजना तो बंदी के कगार पर पहुंच चुकी है. एक दशक में तापमान में तीन डिग्री तक की वृद्धि से यहां का मौसम अंगोरा ऊन के अच्छे उत्पादन के अनुकूल नहीं रह गया है.
वैज्ञानिकों का मानना है कि हम लोग उद्योगों और कृषि के जरिए जो गैसे वातावरण में छोड़ रहे हैं उससे ग्रीन हाउस गैसों की परत मोटी होती जा रही है. ये परत अधिक ऊर्जा सोख रही है और धरती का तापमान बढ़ा रही है. इसे आमतौर पर ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन कहा जाता है. 1750 में औद्योगिक क्रांति के बाद कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 30 प्रतिशत से अधिक बढ़ा है. मीथेन का स्तर 140 प्रतिशत से अधिक बढ़ा है. वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर आठ लाख वर्षों के सर्वोच्च स्तर पर है.
विश्व का सबसे प्राचीन और सबसे बड़ा कृषि प्रधान देश होने के नाते, भारत में कृषि योग्य फसलों की विविध प्रजातियाँ और किस्में मौजूद हैं. फूल देने वाले पौधों की 6 प्रतिशत प्रजातियाँ, पक्षियों की 14 प्रतिशत प्रजातियाँ, पूरी दुनिया में पहचाने गए पौधों की 45000 से अधिक प्रजातियाँ भारत में मौजूद हैं. फसली पौधों की कम-से-कम 166 प्रजातियाँ और फसलों के जंगली रिश्तेदारों की 320 प्रजातियाँ इस उपमहाद्वीप में ही जन्मी थी. भारत में लगभग 90 प्रतिशत औषधियाँ पौधों से प्राप्त की जाती हैं.
पर्यावरणविद रंजन तोमर की ओर से लगाई गई आरटीआइ के तहत केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत काम करने वाले जैव विविधता प्राधिकरण से मिली जानकारी के अनुसार आज देश में 148 प्रजाति के जीव व 132 प्रजाति के पौधे विलुप्त हो गए हैं या विलुप्त होने की कगार पर हैं. इनमें कुछ इतने महत्वपूर्ण पौधे हैं कि उनका इस्तेमाल औषधि बनाने के लिए हो रहा था. 280 प्रजाति में तमाम ऐसे जीव व पौधे थे, जो पर्यावरण को संतुलित रखने में मददगार थे.
विश्व स्तर पर निर्मित जलवायु मॉडलों के अनुसार ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती मात्राओं से अगले 100 वर्षों से धरती के तापमान में 1.5-4.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि की सम्भावना है जिससे धरती की वर्षा में लगभग 5% की वृद्धि होगी. यदि विश्व की आबादी इसी प्रकार बढ़ती रही तो आगामी 25 वर्षों में दुनिया के 48 देश पेयजल के हिसाब से संकट ग्रस्त हो जाएँगे. जलवायु परिवर्तन से वर्षा का क्षेत्रीय संतुलन एवं सागरों का वाष्पीकरण का तंत्र बदल जाएगा. जिससे कहीं अतिवृष्टि एवं बाढ़ से मानव जीवन त्रस्त रहेगा तो कहीं सूखे एवं जल संकट से मानव एवं अन्य जीव-जन्तुओं का अस्तित्व समाप्ति के कगार पर होगा.
अनुमान है कि 2030 तक समुद्र तल 20 सेमी की और वृद्धि होगी. समुद्र तल में अनपेक्षित वृद्धि होने के कारण निम्न तटीय क्षेत्रों एवं छोटे-छोटे टापुओं के निवासियों के लिये प्रलयकारी होगा. कुछ तटीय क्षेत्रों में भूजल और खारा हो जाएगा व नदियों, मुहानों एवं तटीय सिंचाई प्रणालियों के जल प्रवाह प्रभावित हो सकते हैं.
आगामी सौ वर्षों में धरती के औसत तापमान में 1.5-4.5 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो जाएगी जिससे ध्रुवों की जमी बर्फ पिघलने से समुद्र तल उठ जायेंगे. फलस्वरूप अधिकांश तटबंधीय कृषि भूमि डूब जाएगी. वहीं दक्षिण एशिया के गर्म क्षेत्रों में रहने वाले 25 करोड़ लोग गम्भीर रूप से भीषण गर्मी, सूखा, अतिवृष्टि का शिकार हो जाएँगे.2013 में जलवायु परिवर्तन पर एक अंतरराष्ट्रीय समिति ने कंप्यूटर मॉडलिंग के आधार पर संभावित हालात का पूर्वानुमान लगाया था. धरती के औसत तापमान में 1.5-4.5 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो जाएगी जिससे ध्रुवों की जमी बर्फ पिघलने से समुद्र तल उठ जायेंगे.
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