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साझा कलम: 4 – अनुराग उप्रेती

[एक ज़रूरी पहल के तौर पर हम अपने पाठकों से काफल ट्री के लिए उनका गद्य लेखन भी आमंत्रित कर रहे हैं. अपने गाँव, शहर, कस्बे या परिवार की किसी अन्तरंग और आवश्यक स्मृति को विषय बना कर आप चार सौ से आठ सौ शब्दों का गद्य लिख कर हमें kafaltree2018@gmail.com पर भेज सकते हैं. ज़रूरी नहीं कि लेख की विषयवस्तु उत्तराखण्ड पर ही केन्द्रित हो. साथ में अपना संक्षिप्त परिचय एवं एक फोटो अवश्य अटैच करें. हमारा सम्पादक मंडल आपके शब्दों को प्रकाशित कर गौरवान्वित होगा. चुनिंदा प्रकाशित रचनाकारों को नवम्बर माह में सम्मानित किये जाने की भी हमारी योजना है. रचनाएं भेजने की अंतिम तिथि फिलहाल 15 अक्टूबर 2018 है. इस क्रम में पढ़िए अनुराग उप्रेती की रचना.  – सम्पादक.]

सपने में फिर से जी लिया गांव का बचपन

अनुराग उप्रेती

 

यही कोई पांच बजे का समय होगा, हमारे पालतू कुत्ते शेरू के नित्यकर्म का समय हो चुका था अतः वह अपनी आदत के अनुसार धीमी-धीमी आवाज (नौराहट) से संकेत करने लगा था. घर में सबका वही अलार्म था. पिताजी उठे जैकेट पहना, मफलर लपेटा और जूते पहनकर शेरू को घुमाने निकल गये.

ईजा (मम्मी) की भी नींद टूट चुकी थी. धीरे से मुझे सहलाते हुए बोली – गुड्डू उठ, सुबह हो गई तेरे पिताजी तो घूमने निकल भी गए, तू भी अपने काम पर लग जा. तब मेरी उम्र रही होगी कोई 13-14 की और मै आठवीं या नौवीं कक्षा मे पढ़ता रहुंगा.

यदि हम किसी पहाड़ी या मैदानी शहर में रह रहे होते तो अपने काम का मतलब पढ़ाई लिखाई से होता, लेकिन हमारा घर पहाड़ के एक कस्बे में था, जिसमें एक छोटा सा हस्पताल,एक इण्टर कालेज व 2-3 निजी व सरकारी प्राथमिक विद्यालय थे व आस पास के छोटे छोटे पहाड़ी गांवों की जरूरत के हिसाब की एक छोटी सी बाजार, लेकिन इन सबसे कहीं ऊपर थी इसकी खूबसूरती जिसके पूर्व में था पहाड़ की चोटी पर स्थित मां पूर्णागिरी का मंदिर, उत्तर में हिमालय की हिमाच्छादित चोटियाँ, व दक्षिण-पश्चिम में अखिलतारिणी मंदिर की देवदार के वृक्षों से घिरी पर्वतमाला.

हां, तो मै कह रहा था कि दिनचर्या का मतलब होता पढ़ाई-लिखाई से लेकिन हमारी दिनचर्या शुरू होती थी पानी की दौड़ से क्योंकि पहाड़ के अधिकांश कस्बों की तरह हमें भी पोखरों व धारों से पानी लेकर आना पड़ता था. मैं भी उठा. कपड़े पहने, मुंह में पानी की छपकी मारी, कुछ पानी भरने बर्तन, साबुन व मग पकड़कर चल पड़ा. यह दिनचर्या थी – नौले (धारे) पहुंचकर अपने नम्बर का इन्तजार करो, खुले आसमान के नीचे मग्गे की सहायता से अपना काम निपटाओ, हाथ मुंह धोओ और नम्बर आने पर कुछ बर्तन भरकर छोड़ दो और अपनी सामर्थ्य के हिसाब से बर्तन उठाकर घर की तरफ चल पड़ो, घर पहुंचकर सूचित करो कि नौले में भरे बर्तन आपका इंतजार कर रहे हैं.

इसी बीच ईजा भी अपनी एक शिफ्ट की ड्यूटी पूरी कर चुकी होती थी. उनकी भी व्यस्तता सुबह ही शुरु हो जाती थी. नित्यकर्म ने मुक्त होने के बाद गंगा (हमारी गाय का नाम) का दूध दुहना, गौशाला की सफाई, गंगा व उसके बछड़े की खानपान की व्यवस्था, रात के बर्तन धोना आदि, पिताजी भी शेरु को घुमाने के बाद स्वयं भी नित्यकर्म से मुक्त होते, रसोई में जाकर चाय बनाते, आमा (दादी जी) बूबू (दादा जी) को बिस्तर में जाकर चाय देते, रेडियो पर बीबीसी के समाचार ट्यून कर झाड़ू पकड़ते और लग जाते सफाई के काम पर. यह उनकी दिनचर्या का हिस्सा था,

लेखक का गाँव

लगभग सात बज चुके होंगे. धूप निकल चुकी थी. घर पहुंचा तो गरमागरम दूध का ग्लास इंतजार कर रहा था. हालांकि पहुंचकर जब मैने बताया की पानी के बर्तन भरे रखे हैं तो ईजा ने अपनी सिरोंड़ी (सर पर रखने का सपोर्ट जिसके सहारे पानी का घड़ा सर पर सहजता के साथ ठहरता है) उठाई और दोनों निकल पड़े नौले की ओर. हमने भी अपनी किताब पकड़ी, चटाई उठाकर चल दिये छत पर पढ़ाई करने. सोंधी सी धूप व हिमालय से आती ठन्डी हवा के बीच शांत चित्त से घन्टे भर में जितना भी पढ़ सके सब अंतर्धान हो गया.

आठ बज चुके थे. ईजा ने भी लौटकर दाल-भात पका दिया था अब हम भी स्कूल की तैयारी में लग गये. बस्ता तैयार किया. स्कूल की वर्दी पहनी, हाथ धोये और बैठ गये भोजन के लिए. ईजा ने भी गहत (कुलथ) की दाल व पहाड़ी लाल चावल का भात बनाया था. पेट भरकर खाया, हाथ धोये और फिर करने लगे इंतजार अपने मित्र सुरेश का कि कब वो आये और दोनों हँसते खेलते निकलें स्कूल की तरफ. तभी सुरेश ने आवाज लगाई और मैने भी अपना बस्ता उठाते हुए ईजा को आवाज लगाते हुए अपने जाने की सूचना दे दी.

हंसते खेलते निकल पड़े स्कूल की तरफ और बाकी के सहपाठी.

अनिल, कमल, गोपाल, विक्रम, पवन भी रास्ते में साथ हो लिए और टोली बन गई. हंसी मजाक में कब स्कूल पहुंचे पता ही नहीं चला. चूंकि असौज (आश्विन) का महीना था अतः कक्षाएँ बाहर धूप में खुले आसमान के नीचे ही लगा करती थीं. मास्टर जी के लिए एक कुर्सी व मेज तथा पेड़ के सहारे से खड़ा ब्लैक बोर्ड. हम भी अपनी कक्षा के नियमित स्थान पर अपना बस्ता रखकर खेलने लगे. कुछ ही समय बीता था कि प्रार्थना की घंटी बज उठी. हम सब भी प्रांगण की तरफ दौड़ पड़े व प्रार्थना के लिए पंक्तिबद्ध होकर मास्टर साहब के “सावधान-विश्राम-प्रार्थना” के आदेश का इंतजार करने लगे. आदेश हुआ और सब छात्र-छात्राएं साथ मिलकर हमेशा की तरह ‘वह शक्ति हमें दो दया निधे’ ईश वन्दना गाने लगे. तत्पश्चात राष्ट्रगान, प्रतिज्ञा व हाजिरी की प्रक्रिया और फिर कक्षा को प्रस्थान.

एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा फिर चौथा पीरियड हुआ. सभी पीरियड 45-45 मिनट के थे और फिर मध्याह्न का समय. बस 30 ही मिनट का समय मिलता था. कुछ बच्चे साथ में भोजन लेकर आते थे उन्होंने ने अपना डब्बा खोला और लग गये अपने काम पर. चूंकि आश्विन का महिना था और पहाड़ी ककड़ी का सीजन था और योगेश भी एक हरी ककड़ी अपने साथ लेकर आया था. सबने मिल बांटकर ककड़ी का आनंद लिया और फिर लग गये हंसी ठिठोली में. तभी अचानक ध्यान आया कि नजदीक में ही अनिल का बगीचा है और वहां भी ककड़ी की अच्छी फसल हो रही है. तो योजना बनाई गई ककड़ी चुराने की और फिर टोली निकल पड़ी. छुपते छुपाते जैसे तैसे लक्ष्य के नजदीक पहुंचे ही थे कि दूर से अनिल की ईजा आती हुई दिखाई दी. फिर क्या था भागे उल्टे पांव. शायद उनने हमें देख भी लिया था लेकिन सब एक से कपड़ों में थे तो शायद वो हमें पहचान नहीं पायी होंगी. अगर पकड़े जाते तो दिक्कत हो सकती थी क्योंकि पिताजी भी उसी स्कूल में प्राध्यापक थे. इस सबके बीच 30 मिनट कब समाप्त हुए पता ही नहीं लगा.

लेखक का गाँव

अगले चार पीरियड भी ऐसे ही एक के बाद एक समाप्त हो गये. फिर बजी छुट्टी की घंटी और दौड़ सब पड़े घर की तरफ. घर पहुंचे. स्कूल की वर्दी बदली, हाथ मुंह धोया, ईजा खाना पकाकर छोड़ गई थी, खुद गरम किया और लग गये दे दबादब दे दबादब. निपटाया फटाफट और तभी आमा (दादी) ने याद दिलाया कि मम्मी के लिए चाय लेकर जाना है, चूंकि असौज (आश्विन) के महीने में पहाड़ों में घास कटाई का सीज़न जोरों पर होता है. आश्विन के महिने में कटी घास को सुखाकर, सहेज कर रख लिया जाता है ताकि सर्दियों व पतझड़ में पालतू पशुओं के लिए पर्याप्त मात्रा में चारे की उपल्ब्धता बनी रहे. मम्मी भी अगल-बगल की चाची, ताई लोगों के साथ घास कटाई के लिए अपराह्न के करीब निकल जाती थीं, और हम शाम के समय उनके लिए चाय, पानी, गुड़ आदि लेकर जाते. खैर चाय बनाई और केतली, गिलास, पानी का थर्मस लेकर दौड़ पड़े. सबने मिलकर चाय की चुस्की का आनन्द लिया. जैसे ही लौटने को था, मम्मी ने आवाज लगाई – खाली हाथ जाने से तो एक गठरी घास की ही ले जाता. मै भी तैयार हो गया. मम्मी ने हरी घास की एक गठरी बांध सर पर रख दी और हम चल पड़े वापस घर की ओर.

घर पहुंचे, घास पटकी एक तरफ और बैट-बाल पकड़कर निकल पड़े दोस्तों के साथ मैदान की तरफ, जो कि पानी के पोखर के समीप ही था. साथ में कुछ पानी भरने के बर्तन भी उठा लिए. कुछ देर दोस्तों के साथ क्रिकेट खेला, फिर नम्बर आते ही बर्तन भरे और चल पड़े घर की तरफ. आते आते रात घिर आई थी. दादी ने सब्जी काटकर रख दी थी, पिताजी ने दादा जी की अंगीठी (सग्गड़) तैयार कर दी थी और शेरु को घुमा चुके थे. दादा जी अंगीठी के सामने बैठे अपनी संध्या-पूजा में व्यस्त हो गये, मम्मी भी गंगा की सेवा व दूध दोहन से मुक्त हो चुकी थी, हम भी बैठकर पढ़ाई करने लगे, तभी मम्मी ने आवाज लगाकर बुलाया और ठेकी (घड़े) में रखी दही मथने को कहा. उसका भी अपना एक आनन्द है. उन दिनों आजकल की तरह मशीन तो थी नही अतः हाथ से फिरकी चलायी जाती थी. दही मथ गई, मक्कन व मट्ठा तैयार हुआ.

फिर बैठ गये पढ़ाई पर. अभी कुछ देर हुई ही होगी कि रामलीला के मंच से लाउडस्पीकर की आवाज आने लगी – कुम्भकर्ण के कलाकार जहाँ कहीं भी हों तुरन्त मेकअप के लिए पहुंचने का कष्ट करें. आपको बता दूं कि आश्विन का महिना और रामलीला, दोनों का चोली दामन का साथ है. खैर हम भी उत्साहित थे आज रामलीला में मेघनाद-लक्ष्मण युद्ध का मंचन था और हमारा सहपाठी कमल लक्ष्मण की भूमिका में था. क्या उम्दा अदाकारी करता था कमल. हमें भी इंतजार था कि कब मम्मी आवाज लगाए कि खाना बन चुका है. सबने साथ बैठकर भोजन किया और फटाफट गर्म कपड़े पहने, जूते कसे और दौड़ पड़े रामलीला मैदान की तरफ.

मैदान लगभग भर चुका था, हम भी नियत स्थान पर बैठ गये. लीला का मंचन शुरु हुआ. लक्ष्मण-मेघनाद का युद्ध, लक्ष्मण का मूर्छित होना, राम का विलाप, सुसैन वैद्य द्वारा लक्ष्मण के इलाज के लिए संजीवनी बूटी का सुझाव, हनुमान का द्रोनागिरी पर्वत का उठाना, वापसी में भरत से मुलाकात, फिर लंका पहुचना, वैद्य जी का लक्ष्मण का इलाज (नींद से जगाना, इस सबके बीच लक्ष्मण को मंच पर ही नीद आ जाती थी). इसके बाद जब रावण को सूचना मिली कि लक्ष्मण की मूर्छा का संधान हो चुका है तो उसने अपने छोटे भाई कुम्भकर्ण को युद्ध में भेजने का निर्णय किया. अतः उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि कुम्भकर्ण को नींद से जगाया जाये. राक्षसी सेना कुम्भकर्ण को जगाने का प्रयत्न करने लगी लेकिन सोते कुम्भकर्ण को जगाना बहुत मुश्किल था.

तभी मेरी नींद खुली तो देखा पत्नी चादर खींचते हुए बोल रही है -अब कब तक सोते रहोगे! मैंने दुबारा सोने का प्रयत्न किया लेकिन सुखद स्वप्न से बाहर निकल चुका था. सपना टूट चुका था और मै दिल्ली में था.

 

अनुराग उप्रेती पुलहिंडोला (जिला चंपावत, उत्तराखंड) के निवासी हैं. इस समय गुड़गांव में एक बहुराष्ट्रीय मोबाइल कम्पनी के लिए काम करते हैं. अनुराग लिखने का और क्रिकेट खेलने का शौक रखते हैं. अनुराग से anuragupreti@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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