दरअसल ये बात है उस शाम की; जब बेचैन मन को शांत करने की कोशिश में मैं वादियों में टहलने निकल गई थी. देहरादून की वादियां, जिसकी हरियाली का समय के साथ कहीं गायब होते जाना बड़े दुख की बात है. खैर, देहरादून की वादियाँ और चाय की टपरियाँ, ये दो चीज़ें मेरी यादों से शायद ही कभी मिटे. (Column by Upasana Vishnav)
मैं नजर उठाकर लंबे घने पेड़ों की पत्तियों के बीच से शाम का नारंगी आसमान देखते हुए ऐसे ही कुछ ख्यालों में डूबी चली जा रही थी कि अचानक मेरा फ़ोन बजने लगा. मेरे दोस्त का कॉल था. उसने कहा “सब चाय की टपरी पर मिल रहे हैं, तुम तैयार रहो.” मैंने कहा — मैं टपरी के आस-पास ही हूँ. तुम बाकी सब के साथ यहाँ पहुँचो. इतना कहकर मैंने फ़ोन काट दिया.
वैसे तो देहरादून में कई टपरियाँ हैं लेकिन जिस टपरी की बात हम दोस्तों के बीच होती है वह हमारा स्थायी अड्डा है.
कुछ ही पलों में मेरी सैर टपरी पर ख़त्म हो चली. जाहिर ही है कि मेरा एक भी दोस्त अभी तक वहाँ नहीं पहुँचा था. इधर-उधर नजरें फिराते हुए मैं समय काटने की कोशिश कर रही थी. अचानक मुझे लगा कि मेरी नज़र जिस इंसान पर ग़लती से पड़ी, शायद मैं उसे जानती हूँ. याददाश्त टटोलने पर मेरा शक यक़ीन में तब्दील हुआ. मैं उस शख़्स को जानती थी जो टपरी के बाहर लगी कुर्सी पर बैठा था. उसके एक हाथ में चाय थी और दूसरे हाथ से वह एक कुत्ते को सहला रहा था. मैं इस शख़्स से एक थियेटर प्ले की रिहर्सल के दौरान मिली थी. जहाँ मुझे थोड़ी ही बातचीत के बाद पता चला कि मैं और मेरी उम्र के बाकी लोग जिन्हें 28-30 बरस का समझ रहे थे, उनकी उम्र 38 साल है. वे पेशे से एक वकील हैं और शौकिया तौर पर रंगमंच से जुड़े हुए है.
ठीक इसी पल मेरे मन में एक सवाल था — क्या मुझे जाकर उन से मिलना चाहिए या फिर ऐसे पेश आना चाहिए जैसे मैंने उन्हें देखा ही न हो?
गंभीर उधेड़-बुन के बाद मैंने तय किया कि मुझे एक अच्छे इंसान की तरह जाकर मिलना चाहिए और हाल-चाल लेने चाहिए. लेकिन क्या होगा अगर उन्होंने मुझे पहचाना ही नहीं?
अगले ही पल मैंने सारे ख़यालों को झटक दिया और पास जाकर बोला — हाइ!. उन्होंने नज़रें उठा कर पल भर देखा और मुझे यक़ीन हो गया कि उन्होंने मुझे नहीं पहचाना.
तभी उन्होंने एक सरप्राइजिंग स्माइल के साथ कहा — ओह हाइ! तुम यहां कैसे? मैंने वहाँ क्यूँ और कैसे का संक्षिप्त जवाब दिया. उन्होंने मुझे बैठने को कहा और चाय के लिए भी पूछा.
मैंने कुर्सी पर बैठते हुए कहा — नहीं, चाय के लिए मैं अपने दोस्तों का इंतजार करूंगी.
टपरी का वह कुत्ता, जिसे वकील साहब ने अभी-अभी मेरे आ जाने के बाद तवज्जोह देना छोड़ दिया था, आँखों में आस लिए एकटक बस उन्हें देखता रहा. इशारे से मैंने उसे अपने पास बुलाया और वह उसी आस से मेरे पास पहुँच गया. मैंने उसके सिर पर हाथ फेरना शुरू किया. यह देख कर सामने से मेरे लिए एक सवाल आया — तुम डॉग लवर हो?
मैंने सोच में डूबे हुए शब्दों को खींचते हुए कहा — डॉग लवर तो नहीं, बस जो प्यारा होता है उस पर तो प्यार आ ही जाता है. मुझे बिल्लियों की बदमाशी पर भी उतना ही प्यार आता है जितना कि गली के किसी कुत्ते के चेहरे से टपकती मासूमियत पर.
इस बात पर ज़रा सा हंसते हुए उन्होंने कहा “हां ये भी अच्छा है, पर मुझे हमेशा से बिल्लियां ही पसंद है कुत्ते इतने पसंद नहीं.”
सुनकर मुझे बड़ी हैरानी हुई. जो इंसान इतनी देर से मेरी आँखों के सामने एक कुत्ते पर प्यार जता रहा है वह अब कहता है कि उसे कुत्ते नहीं पसंद. टपरी में गैस पर चढ़ी चाय में जैसा उबाल आ रहा था कुछ वैसा ही था मेरे मन के सवालों का भी उबाल. कई बार अपनी अधिकतम ऊँचाई तक चढ़ चुकने के बाद चाय और सवाल वापस नीचे बैठ गए. आख़िर में मेरी जबान से सवाल और बर्तन से चाय दोनों ही छलक पड़े. उस के बाद चाय बनाने वाला थोड़ी अफ़रा-तफ़री में, जबकि मेरा सवाल सुनने वाला चंद पलों के लिए सन्नाटे से भर गया.
शायद उन्हें मेरे सवाल से इस बात का छिड़ जाना अच्छा नहीं लगा या फिर वे इस बात का जवाब देने से बचना चाहते थे.
उन्होंने इसी चुप्पी के साथ मुझसे नज़रें चुराते हुए ख़यालों को इधर-उधर भटकने दिया. अंत में अपनी आँखों को दूर सड़क के किसी कोने पर टिकाकर मुझसे बोले — मुझे प्यार करना सिखाया गया.
धीरे-धीरे अपनी नज़रें उठा कर आसमान को देखते हुए उन्होंने कहा — उसे कुत्ते बहुत पसंद थे. वह बहुत ज्यादा प्यार करती थी कुत्तों से. गली में बैठ जाया करती थी कुत्तों को प्यार करने के लिए. मुझे हमेशा से लगता था कि बिल्लियों की तुलना में कुत्ते ख़ुद को ज्यादा साफ़ नहीं रखते. इन्हें इंसानों का ध्यान अक्सर ख़ुद की तरफ़ चाहिए होता है. इतना समय भला कौन दे. इसलिए उसे ये सब करता देख एक हिक़ारत का भाव आता था. उसने बहुत से घायल कुत्तों को अस्पताल ले जाकर उनकी मदद की. ज़रूरत पड़ने पर उन्हें अपने पास भी रखा, कई दिनों तक. उसे बिल्लियों से ऐसा कोई द्वेष भी नहीं था. मेरे अंदर के एक कोने में गहन अंधेरा था. जहा नफ़रत और द्वेष रहा करते थे. उस के साथ रह कर मैंने सेवा का भाव जाना. धीरे-धीरे मुझे कुत्तों से होने वाली दिक़्क़त ख़तम होने लगी. मेरे अंदर जानवरों के रख-रखाव के बारे में जानने की जिज्ञासा बढ़ने लगी.
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मैंने पूछा — क्या अब आपको बिल्लियों के साथ-साथ कुत्ते भी पसंद हैं?
उन्होंने जवाब दिया — हाँ! मुझे अब ख़ास तरह की बुराई किसी भी जानवर में नहीं दिखती.
इस बात को बताते वक़्त उनके चेहरे पर एक शांति थी. जिस तरह से वे आसमान पर आँखें टिकाए बैठे थे उस से लग रहा था जैसे ठीक इस पल में उनके अंदर विचारों का कोई सैलाब नहीं है. वे जो भी बता रहे हैं वह केवल शब्दों भर की नुमाइश नहीं है, वे अपने अंदर ये भाव वाक़ई समाए हुए हैं.
इतनी बातों के बाद मैं अपने मन में वही शांति महसूस कर रही थी जो उन के चेहरे की खाल से लेकर आँखों की पुतलियों तक में दिख रही थी.
तभी अचानक मुझे किसी ने पीछे से आवाज दी. मैंने पलट कर देखा, मेरे दोस्त पहुँच चुके थे.
“अब मुझे चलना होगा.” मैंने वकील साहब से कहा. उन्होंने कहा “हाँ ठीक है कोई बात नहीं.” “अचानक इस तरह मिल कर अच्छा लगा.”
“हां! बिल्कुल मुझे भी खुशी हुई.” कहकर मैं जाने लगी.
दो कदम चलने के बाद मैंने पलट कर फिर सवाल किया — वह अब कहाँ हैं?
“हमारे समुदाय अलग-अलग थे.” उन्होंने जवाब दिया.
वे चुप हो गए. मैंने भी मान लिया कि यहीं इस क़िस्से का अंत है.
अचानक मुझे सुनाई दिया ” अब हम दोनों एक साथ हमारे घर में रहते हैं. वह मेरी धर्म पत्नी है.”
ये अल्फ़ाज़ सुन कर मेरी ख़ुशी कई गुना बढ़ गई. जिसे मेरे चेहरे पर साफ़-साफ़ देखा जा सकता था. मुझे कुछ कहने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई. मैं चुपचाप चेहरे पर एक मुस्कान लिए दोस्तों के पास चली गई.
अब मेरे मन में कोई भी सवाल नहीं था. बस था तो एक ख़याल कि प्रेम कभी द्वेष और नफ़रत करना नहीं सिखाता. असल प्रेम हमारे अंदर के अंधकार को मिटाता है और जाति व रंग जैसी शर्तों से ऊपर उठ कर सेवा का भाव जगाता है. (Column by Upasana Vishnav)
रामनगर की रहने वाली उपासना वैष्णव देहरादून में पत्रकारिता की छात्रा हैं. उपासना एक अच्छी अभिनेत्री होने के साथ ही अपने भावों को शब्द भी देती हैं.
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