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अब होली जैसी होली नहीं बची पहाड़ों में

होली आने वाली है ये सोचकर ही इस साल मन में काफी उत्साह था क्योंकि बचपन की होली की तस्वीर सामने थी और 2008 के बाद पहाड़ की होली देखने का यह बहुत खास मौका था. शायद इकलौता हमारा ही गाँव होगा जहाँ दो होलियाँ आती हैं. दो होलियों वाला ये सिलसिला चल तो अभी भी रहा है लेकिन वो पुराना रंग अब फीका पड़ चुका है. 10-12 परिवारों की जो बाखली एक कोने से दूसरे कोने तक होल्यारों से पूरी भरी रहती थी वो अब एक घर के आँगन तक सिमटकर रह गयी है.  Changing Colours of Holi in Kumaoni Villages

पहले जब होली (पुरुषों वाली)घर आया करती थी तो महिलाएं घरों से बाहर ही इस डर से नहीं निकलती थीं कि कहीं से रंग और पानी न पड़ जाये या कोई देवर रंग न लगा दे. फिर भी चोरी छुपे कोई न कोई पकड़ में आ ही जाती थी. कई बार तो छतों से गोबर की बाल्टी भी सिर पर डाल दी जाती थी. कब कौन कहाँ और किस से टकरायेगा ये देखना बड़ा मजेदार होता था. Changing Colours of Holi in Kumaoni Villages 

होली की तैयारियां कई दिन पहले शुरू हो जाती थीं. बाजार से गुड़ की भेलियाँ लायी जाती थी, सौंफ, सुपारी और सिगरेट भी. सौंफ भूनी जाती थी फिर उसमें चीनी और कद्दूकस करके नारियल डाला जाता था. अब तो सौंफ की जगह माउथ फ्रेशनर बांटा जाने लगा है. होल्यार झोले में भरकर गुड़ ले जाया करते थे अब किसे गुड़ चाहिए. शराब मिल जाए बस वही काफी है. Changing Colours of Holi in Kumaoni Villages            

वो जो होली गीत घंटों चलते थे अब मिनटों में सीमित हो गये हैं. वो खड़ी होली,वो बैठ होली और वो रंगों का खुमार इतना अलग लगने लगेगा मैंने सोचा ही नहीं था. गाँव खाली होते मैं देख तो रही थी पर इस होली में जो महसूस हुआ वो कुछ अलग ही था. ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी अलग ही गाँव में हूँ क्योंकि वो बात, वो लोग, वो रौनक यहाँ नहीं थी जो पहले हुआ करती थी.

पुरुषों की होली के बाद महिलाओं की भी होली होती है, पर जब सब कुछ बदल गया तो फिर ये होली कैसे पहले जैसी हो सकती थी. आखिर गाँव तो वही है. शहरों की तरफ पलायन कर चुके परिवारों में से कुछ लोग हैं जो अभी भी होली के लिए घर आते हैं पर मन में सवाल ये था कि ये बूढ़े लोग भी कब तक आते रहेंगे? और जब ये लोग नहीं आ पाएंगे तब क्या ये बचा खुचा रंग भी नहीं बचेगा? Changing Colours of Holi in Kumaoni Villages

पलायन की ये मार कितनी गहरी है इसका अंदाजा भी लगाना मुश्किल है पर कुछ उम्मीदें हैं जो हमेशा साथ चलती हैं. एक उम्मीद ये ज़रूर है कि कभी तो मेरा गाँव वापस पहले जैसा होगा, कभी तो वो पुरानी रौनक वापस आयेगी.      

-उमा कापड़ी                

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उमा के इस लेख को भी पढ़ें: बचपन की यादों का पिटारा घुघुतिया त्यार

इस आलेख की लेखिका उमा कापड़ी

1 फरवरी 1993 को उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के बलगड़ी गांव में जन्मीं उमा कापड़ी (हालांकि सरकारी प्रमाणपत्रों में यह 10 अगस्त 1993 दर्ज है) ने पुरानाथल से दसवीं तक पढ़ाई की. उसके बाद वे नोएडा आ गईं और वहीं से उन्होंने 11वीं और 12 वीं की पढाई की. दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान की स्नातक उमा ने कुछ समय तक ‘जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय’ (NAPM) से जुड़कर काम किया . वर्तमान में उन्होंने वापस अपने गाँव आकर कुछ करने का फैसला किया है. पिछले एक महीने से वे अपने गाँव में ही रह रही हैं.

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  • मैनें देखी नहीं कुमाऊं की होली, लेकिन मेरी माँ ने खूब बताया था मुझे धामस में उनके घर आने वाली होली के बारे में... होल्यारों का उत्साह, गुड़ की भेलियाँ, बीड़ी के बंडल और गीत संगीत... लगता है जैसे मैनें स्वयं अपनी आँखों से देखा हो सब...

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