मेरा पैतृक गाँव ब्रिटिश अल्मोड़ा के दक्षिण-पूर्व में स्थित एक छोटा-सा गाँव है, ‘छानगों’; मगर शुरू से ही इसे ‘छानागाँव’ नाम से पुकारा जाता है. यह गलती इतनी बार दुहराई जाती रही है कि गलत शब्द ही अब शुद्ध और मानक बन गया है.
(Budapest Memoir by Batrohi)
जिन्दगी की तीन-चौथाई सदी बीत जाने के बाद उस प्रसंग को छेड़ने का अब कोई औचित्य नहीं है, मगर इस बीच हमारा हिंदी समाज जिस तेजी और फूहड़ ढंग से बदला है, उसके बीच जीते हुए खुद की अकुलाहट को व्यक्त किये बिना चैन नहीं पड़ रहा है.
करीब चार-पांच सौ साल पहले मेरे पुरखे काली कुमाऊँ के गुमदेश से आकर इलाके की एकमात्र बड़ी नदी पनार किनारे के इस गाँव में बसे थे. चारों ओर से घिरी अर्धचंद्राकार पहाड़ियों के बीच सर्पाकार नदी पनार बहती थी. नदी का उत्तरी हिस्सा मल्ला सालम कहलाता था और दक्षिणी तल्ला सालम. छानगों दोनों पट्टियों के बीच में किनारे पर थोड़ा ऊँचाई में बसा हुआ गाँव है. पुरखे शायद शुरू में नदी किनारे पर ही बसे होंगे, बाद में अपनी जरूरत के हिसाब से ऊपर पहाड़ी की ओर खिसकते चले गए होंगे.
(गुमदेश के मेरे पुरखों के किस्से)
यह किस्सा है 1997 के जुलाई महीने का जब मैं भारत सरकार की ओर से डेप्युटेशन पर पूर्वी यूरोप की Eötvös Loránd University, H-1052 Budapest, Piarista köz 1. HUNGARY को भेजा गया था. हंगरी देश और उसकी हसीन राजधानी बुदापैश्त का नाम किसने नहीं सुना होगा? नए दौर के चर्चित फिल्म-निर्माता संजय लीला भंसाली को जब अपनी नए ढंग की प्रेम-कहानी ‘हम दिल दे चुके सनम’ को फिल्माना था, उन्होंने अपनी टीम के साथ इसी शहर में डेरा डाला था.
(Budapest Memoir by Batrohi)
बुदापैश्त शहर में घुसते ही मेरी उलझन का कारण शहर के नाम का उच्चारण बना जिसने मुझे कई दिनों तक लगातार परेशान रखा. यह शब्द मुझे अपने बचपन के दिनों से जुड़ी अपनी प्यारी नदी-घाटी की ओर खींच ले गया. दो शब्दों बुदा (पहाड़) और पैश्त (मैदान) से बना यह शब्द इस बात का सबूत है कि यह शहर पहाड़ और मैदान के संधि-स्थल पर बसा हुआ है. पहाड़ी और मैदानी संस्कृतियों का संगम.
इस शहर की रोमन वर्तनी Budapest है, जिसका उच्चारण भारत में बुडापेस्ट किया जाता था. अंग्रेजी-भाषी समाज को इसमें जरा भी गलत नहीं लगता था. बल्कि इसे ही वह शुद्ध मानता रहा था. मुझसे पहले जो प्राध्यापक भेजे गए थे, वो भी वही लकीर पीट रहे थे. विद्यार्थियों और अध्यापकों का उच्चारण सुनने के बाद मेरा माथा ठनका. वे लोग इसका उच्चारण बुदापैश्त कर रहे थे. सवाल सिर्फ इस एक शब्द का नहीं था. बाद में इस ओर ध्यान गया कि ठीक यही स्थिति उनकी भाषा Magyar को लेकर थी.जिसे हिन्दुस्तानी लोग ‘माग्यार’ पुकारते थे और हंगेरियन ‘मज्यर’. हिंदी विभाग की अध्यक्ष Mária Négyesi थी जिन्हें वहां के लोग मारिया नेज्यैशी पुकारते थे और हिन्दुस्तानी मरिया नेग्येसी. विश्वविद्यालय के नाम Eötvös Loránd Tudományegyetem के सही उच्चारण का तो सवाल ही नहीं था इसलिए सबके लिए इसका संक्षिप्त रूप ELTE (शुद्ध उच्चारण ऐलतै) सब के बीच चलता था.
तो संकट क्या था? मैं यहाँ पर भाषा की शुद्धता या मानक रूप की बात नहीं कर रहा हूँ. मेरे लिए यह संकट अपने गाँव ‘छानगों’ और ‘छानागाँव’ तथा स्कूल के नाम ‘द्यौवमें’ और ‘देवीथल’ में से किसी एक को चुनने-जैसा था. मेरे देश में इसे कोई महत्व नहीं देता था, मगर भाषा का अध्यापक होने के नाते इस अंतर को समझना और छात्रों को बताना मुझे अपनी जिम्मेदारी महसूस होती थी. जिम्मेदारी को छोड़ भी दें, सही उच्चारण की जानकारी न होने के कारण आम लोगों के साथ संपर्क में तो दिक्कत होती ही थी; बात समझी नहीं जाती थी; कभी-कभी तो अर्थ का अनर्थ हो जाता था.
(Budapest Memoir by Batrohi)
हवाई अड्डे पर पहुँचने के बाद दूतावास का कर्मचारी मुझे अंतर्राष्ट्रीय अतिथिगृह Menési üt ले गया जिसका उच्चारण है मैनेशी ऊत. ‘मैनेश’ (घोड़ों का झुण्ड) में ‘ई’ विशेषण लगे इस शब्द का अर्थ है ‘घोड़ों के झुण्ड वाली सड़क’. सोलहवीं सदी की चर्च शैली में बनी इस भव्य इमारत के इर्द-गिर्द सहज ही पुराने यूरोप का वैभव झांकता दिखाई देता था. मालूम हुआ कि कभी यह स्थान विशाल चारागाह का हिस्सा था जहाँ घोड़े झुण्ड में दौड़ा करते थे. हृष्ट-पुष्ट कद-काठी के हंगेरियन चरवाहे घोड़ों पर सवारी गांठते हुए जंगल में इधर-से-उधर उन्हें दौड़ाते रहते थे.
यह परिदृश्य मुझे अपनी जन्मभूमि की पनार घाटी में पुरखों के द्वारा पाले जाने वाले भैंसों के रेवड़ की याद दिला गया. ग्वाल्देकोट का पैक शेरुवा याद आया जो भैंसों को तेज़ बहती पनार की उल्टी धारा में तैराकर पहाड़ की चोटी तक सामान ढोता था और नर-भैंसों को युद्ध क्षेत्र में लड़ने के लिए तैयार करता था. पनार के किनारे उगाई गई जमाली बासमती और घी-दूध की ठेकियाँ राजा के घर तक पहुँचाने जाता था. नौजवानों को कुश्ती लड़वाता था और अपनी संतानों के साथ मवेशियों को जड़ी-बूटी भरे बुग्यालों में चरने के लिए खुला छोड़ देता था. पता नहीं इन किस्सों में कितनी सच्चाई होती थी, मगर उस दिन मैनेशी ऊत के पठारों और पनार के भैंसों के रेवड़ में मुझे अद्भुत समानता दिखाई दी थी.
गाँव का नाम छानगों पड़ने के पीछे भी रोचक कहानी है. इसे जानना इसलिए जरूरी है क्योंकि ‘छानगों’ छाना गाँव नहीं हो सकता, न लोक-स्वभाव से और न व्याकरण के लिहाज से. ‘छान’ कुमाऊँ में पशुओं के रहवास को कहते हैं जिन्हें उतनी ही सुरुचि और सुविधाओं के साथ बनाया जाता है जितने मानवीय आवास को. भैंस-पालक पुरखों के लिए यह व्यवस्था और सौन्दर्य-बोध ज़रूरी था, खुद के लिए भी और अपने परिवेश के लिए भी. मगर नए भाषा-ज्ञान ने पशुओं और मनुष्य के रहवासों को अलग संज्ञा दे दी. शुरू-शुरू में मैं दुखी होता था जब कई लोग मेरा परिचय देते हुए कहते थे, मेरा जन्म ‘छाना’ नामक गाँव में हुआ है. मगर मेरा जन्म तो छानगों में हुआ था; छाना तो हर पहाड़ी परिवार के द्वारा अपने मवेशियों के लिए बनाये जाने वाले घर का नाम है, लोगों का घर अलग और मवेशियों का घर अलग; हालाँकि दोनों मिलकर बन जाते हैं एक गाँव की संज्ञा. ऐसा परिचय तो हम भैंस-पालकों के परिचय को खंडित करना है जहाँ हम अलग हैं और हमारे मवेशी अलग.
बुदापैश्त में जिस मकान Kolostor utca 2 II 7 में मैं रहता था वह कोलोश्तोर नामक दूसरी गली की दूसरी मंजिल पर स्थित सातवां घर था. खूब सुविधा-संपन्न और हर कमरा प्रकृति से सीधे जुड़ा हुआ. शहर के खास इलाके में स्थित था इसलिए किराया महंगा था, घर का किराया करीब एक लाख से कुछ ऊपर (फोरिंट) प्रतिमाह. यह किराया राजदूत के अलावा सिर्फ प्रथम सचिव को देय था, मगर कड़क मिज़ाज के सरल-हृदय राजदूत सरदार सतनाम जीत सिंह ने कुछ ही दिनों में ऐसा दिल जीता कि भारत सरकार से बढ़ा हुआ पैसा स्वीकार करवा लिया. सौभाग्य से मकान मालिक वेरेत्स्केय इश्त्वान भी मजबूत कद-काठी का एक पहाड़ी नौजवान था जिसने कभी इस बात का अहसास नहीं होने दिया कि मैं घर से बाहर हूँ. नियत अवधि से कुछ अधिक दिनों तक उसके मकान में रहने के कारण थोड़ा-सा किराया मुझ पर देय है जिसे मैंने आज तक नहीं दिया है, महज इसलिए कि बुदापैश्त की उन स्वप्निल स्मृतियों को हमेशा अपने पास संजोये रख सकूं. मुझ पर वह कर्ज हमेशा बना रहेगा, ऐसा कर्ज जिसे बनाये रखना असीम सुख का अहसास देता है.
(Budapest Memoir by Batrohi)
हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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