गढ़वाल में चैत के महीने में गाए जाने वाले चैती गाथा गीतों में जसी की गाथा भी प्रमुख है. जसी और फ्यूंली की गाथाओं में कुछ समानताएं भी हैं और कुछ अन्तर भी. समानता ये कि दोनों सास के निष्ठुर-ईष्र्यापूर्ण व्यवहार और पनघट-प्रसंग के आरोप से अकाल मृत्यु को प्राप्त होती हैं और अंतर ये कि फ्यूंली, एक फूल के रूप में खिलती है हर बसंत में जबकि जसी चमात्कारी ढंग से पति बीरू के प्रेम और भक्ति से पुनर्जीवित हो जाती है. Biru and Jasi Folklore
हरिचंद नाम के राजा (या सामंत) के घर जन्मी थी जसी. वर्षों तक राजा को संतान-सुख प्राप्त नहीं हुआ तब यज्ञ-अनुष्ठान आदि करने से देवकृपा से एक पुत्री पैदा हुई. पंडितों ने कहा, हे राजन! तुम्हारी बेटी खूब जसीली (यशवान) होगी इसलिए इसका नाम जसी रखा जाना चाहिए.
चंद्रमा-सी सुंदर थी जसी, फ्यूंली की सी पंखुड़ी. होनहार डाली के चमकते पत्ते अलग ही दिख जाते हैं. जसी भी पूनम के चाँद जैसी बढ़ कर, सुघड़ युवती हो गयी. उधर किसी राजा (या सामंत) का बेटा, बीरू नाम का एक प्रसिद्ध भड़ (बलिष्ठ योद्धा) था. चैड़ी छाती और आजानबाहु बीरू की बहादुरी के इलाके में चर्चे थे. बीरू-जसी की जोड़ी जैसे स्वर्ग से ही निर्धारित रही हो. चट मंगनी पट ब्याह हो गया.
बीरुवा जसी की बांधेणी मलेऊ जसी जोड़ी
अगासन जनि जोन पाए, फूल तैं मिली भौंरीलो
धरती तैं स्वाग मिले मनखीन भाग पाए
तब जसी बीरुवा को हृ्रैगे माछी पाणी सी ज्यू.
एका देखी हैको नी खांदो
एका बिना हैको नी सेंदो
द्वी जिया होला वो एक होलो सरील
दुइयों की जिकु़ड़ी होली जनी शैत मा लेसेंदी माखी
घरबार भूले बीरुवा भूलिगे संगसार.
दोनों की मलेऊ (पर्वतीय कबूतर) जैसी जोड़ी थी. जैसे आकाश को चंद्रमा मिल गया हो. भौंरा मिल गया हो फूलों को. धरती को सुहाग मिल गया हो और मनुष्य को भाग (सौभाग्य). तब जसी और बीरू के मन मछली-पानी से मिल गए. एक को न देखकर दूसरा खाता भी न था. एक-दूसरे के बिना नींद भी नहीं आती थी. शरीर दो थे पर प्राण एक हो गया था. दोनों के हृदय, शहद में लिपटी हुई मक्खी की तरह एकाकार हो गए थे. बीरू तो जसी के प्रेम में घरबार और पूरी दुनिया को ही भुला बैठा था.
एक रात बीरू स्वप्न देखता है कि उसके पिता उसे गया जाकर पिण्ड देने के लिए कह रहे हैं. बीरू गया-काशी जाने का मन बना लेता है और अपनी इच्छा जसी को बताता है. जसी बीरू के दूर जाने की बात सुनकर ही रुआंसी हो जाती है. सोचती थी कि हे भगवान, हमारे रंग में भंग क्यों हुआ.
मेरी माया तेरा दगड़ा जसी
झपन्याळी डाळी की सीं छाया
छु़ड़ाए भण्डारीन् वींको अंग्वाळ.
बीरू भण्डारी ने बड़ी मुश्किल से जसी को मनाया ये कह करके कि मेरा प्रेम तो हमेशा तेरे साथ ही है, घने पेड़ की छाँव की तरह. तू चिंता क्यों करती है मैं तेरे लिए बहुत सारे उपहार लेकर दो महीने में लौट आउंगा. बड़ी मुश्किल से बीरू ने खुद को जसी के आलिंगन से मुक्त किया और यात्रा पर निकल गया.
मैलो हृगे धुमेलो रूप वीं को
फूल-सी अलसै वा धूल-सी ह्वैगे.
सासू छै वीं की वा पद्मावती
ब्वारी देखी वींका जिया पड़्द छौ डौ
आँखी रंदी छई घुरौणी ढुंगा फरकौणी
ईन करे मेरा नौना पर जाप.
बई का नौं अब बई नी बोद
मैन पूत पाळे होए ब्वारी की भौंदी.
प्राणप्रिय बीरू के वियोग में जसी का रूप फीका पड़ गया. खिले फूल सी जसी मुरझा कर धूल-सी हो गयी. उसकी सास का नाम पद्मावती था. बहू को देखकर उसके सीने में आग लग जाती थी. जसी को वो घूरकर देखती थी और हर समय लड़ने के लिए उद्यत रहती थी. उसे लगता था कि इसीने मेरे लड़के पर जादू किया है. इसी के कारण वो अपनी माँ को भी माँ नहीं बोलता है.
एक दिन पनघट पर जसी को उसका जीजा पद्मू रौत मिलता है जो उधर से होकर अपनी ससुराल जा रहा था. जसी का मुरझाया और श्रृंगारविहीन चेहरा देखकर वो चिंतित होता है तो चिंतित होकर उससे सहानुभूति जताता है. वनपुष्पों से जसी का श्रृंगार कर और हालचाल के दो मीठे बोल बोलसुन कर वो अपनी राह चल देता है. विलम्ब के कारण चिंतित जसी भी तेजी से पानी लेकर घर की ओर चल देती है.
ब्वारी की देखे वींन फूलू सजीं स्यूंद-पाटी
सासू की जिकुड़ी जन किरमलोंन् काटी
जना कैन धरीन मर्च का चीरा काट्यां पर
सुबेर बटी तू वख पंद्यारा रै बगणी
इतगा बगत तलक तू करदी क्या राई?
सास ने उसकी फूलों से सजी मांग देखी तो आग-बबूला हो गयी ऐसी कि जैसे उसके दिल पर चींटियों ने काट लिया हो. जैसे किसी ने कटे पर मिर्च डाल दी हो. कहने लगी कि क्या तू पनघट पर बह गयी थी? इतनी देर तक वहाँ क्या कर रही थी?
गंगा-सी पवित्र जसी पर सास ने दुश्चरित्रता का लांछन लगाया, गालियां दी. जसी कहती रही भगवान के लिए सासजी मुझ पर ऐसा लांछन मत लगाओ. मैं सुन भी नहीं पाऊंगी और ज़हर खा लूंगी या नदी में डूब मरूंगी. सास पर तो जैसे खून सवार था. उसने उसकी एक न सुनी और कटार उसके पेट में घोंपकर उसकी जीवनलीला समाप्त कर दी. जसी को मारकर निर्दयी सास ने घर के पीछे ही नींबुओं के बगीचे में दफना दिया. Biru and Jasi Folklore
इधर घर लौटते बीरू को बहुत बुरा स्वप्न होता है. वह घर पहुँच कर अपनी जसी की झलक पाने को बेचैन हो उठता है. उसे आवाज लगाता है तो उसकी माँ रोनी सी सूरत बना कर बाहर आती है और बीरू को बताती है कि उस पातर (दुष्चरित्र) का नाम भी मत ले. उसने अपने कुकर्म के कारण अपनी मौत स्वयं ही बुला ली है. बीरू को पूरा माज़रा समझने में देर नहीं लगती.
हा! जिया त्वैन मारी होली, वा सुपिना मा बोली गए
त्वैन मेरी जोड़ी को मलेऊ कनो फंट्याए
कख जैक पौण मैंन जसी जन नार
कख जैक देखण मैंन वींकि मुखड़ी अन्वार
तब रौंदू बबरांदू भंडारी जांदू निमौ का बग्वान
वींकि पिंगळी मुखड़ी देखदू कौड़ी सरीं दांतुड़ी
हाय! माँ, तूने ही उसे मारा है. उसने मुझे सपने में बताया था. तूने ही मेरी जोड़ी की कबूतरी को मुझसे अलग किया है. जसी जैसी प्रिया मैं कहाँ जाके पाऊंगा. कहाँ जाके देखूंगा मैं उसके मुख की अनुहार. तब रोता बिबलाता भंडारी नींबुओं के बाग में जाता है और मृत जसी के पीले चेहरे को देखता है जिस पर सफेद कौड़ियों-सी दंतावलि अभी भी शोभित है.
बीरू, विलाप करता हुआ बुरी तरह तड़पने लगता है और जसी की मृत देह से लिपट कर बेहोश हो जाता है. तब स्वयं शिव-पार्वती उसे स्वप्न में दर्शन देते हैं और धीरज बँधाते हैं. बीरू जसी के शरीर पर गंगाजल के छींटे मार कर आह्वान करता है –
सच होली तू जसी नार सत की पूरी
दुयों की जाई एक की जोई
त उठ जा सेयां की चार
जु त्वैन नी करे हो पाप, मन रै हो साप
जु कैक खोटी नी बोली हो, मर्द परायो नी तके हो
त तू खड़ी होई जा जसी नार
बिजी जा बिजी सेयां की चार.
हे जसी! अगर तू सच में पूरी सती रही, दो की पैदा की हुई है और एक की ही पत्नी रही तो उठ जा अभी ऐसे कि जैसे सोयी रही हो. अगर तूने कोई पाप नहीं किया, तेरा मन साफ-निर्मल रहा. अगर तूने किसी को कटु बचन न बोले हों, किसी पराये पुरुष को गलत दृष्टि से न देखा हो, तो हे जसी! खड़ी उठ जा. ऐसे कि जैसे कोई नींद से जाग कर उठता है.
प्रभु की माया देखा, सतियों को सत
जसी कबलाण लैगे, आँख्योंन टपराण लैगे
ऐगे सजून वीं तैं सुतबीजी-सी जागे
बीरून् वा सांका लगैले, हरचीं जनी पैले.
प्रभु की माया और सतियों के सत से जसी कुलबुलाने लगी, आँखें इधर-उधर घुमा कर देखने लगी. जसी को होश आ गया वो जैसे नींद से जाग गयी. बीरू ने उसे सीने से ऐसे चिपका लिया जैसे कोई खोयी हुई प्रिय वस्तु पा ली हो.
जसी की ये चैती गाथा सदियों से चैत के महीने दिशाभेंट के अवसर पर आवजी-कलावंतों द्वारा गायी जाती रही है. गुप्तकाशी के समीप लमगौण्डी गाँव में जन्में कवि बलदेव प्रसाद दीन ने 1927 में जसी की इसी गाथा को खण्डकाव्य के रूप में प्रकाशित भी किया गया था. बलदेव प्रसाद जी ने गाथा के शब्दों और कथ्य में कुछ परिवर्तन भी किया था. इस आलेख में जो वर्णन है वो आवजी-कलावंतो द्वारा वाचिक परम्परा में सुनायी जाती रही गाथा पर आधारित है. गोविन्द चातक जी द्वारा लिपिबद्ध ये गाथा सिरसे़ड़,कड़ाकोट के सेवादास से सुनी गयी थी.
दिशा-धियाणियों (बहन-बेटी) को भावुक बनाकर उनसे बख़्शीश पाना कभी भी पारम्परिक कलावंतो का उद्देश्य नहीं रहा. वस्तुतः वे इन गाथाओं के गायन के द्वारा एक बड़े उद्देश्य को पूरा करते रहे हैं और वो है – गलत आचरण को हतोत्साहित करना और भले की प्रशंसा कर सुमार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना. एक तरह से वाचिक परम्परा की नैतिक कहानियां ही हैं चैती गाथाएँ जो श्रोताओं की आँखें भिगो देती हैं और मन के किसी कलुषित रह गए कोने को निर्मल भी बनाती हैं. नल-दमयंती और सत्यवान-सावित्री जैसी पौराणिक कथाओं का पर्वतीय संस्करण है, जसी की लोकगाथा. ये कहना कठिन है कि ये शुरू से ही सुखान्त थी या भावुक बेटियों-बहनों के आँसुओं ने, गाथाकार को इसे सुखान्त बनाने पर मजबूर कर दिया. Biru and Jasi Folklore
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.
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