Featured

अल्मोड़िया राइटर डेढ़ यार: पहुंचे टेसन अंधेरी-खार

अल्मोड़ा से बम्बई चले डेढ़ यार – दूसरी क़िस्त

पिछली क़िस्त में उत्तराखंड से हिंदी साहित्य में कूद पड़े हमारे किस्सागो-पुरखों का जिक्र हुआ ही था कि चारों ओर से शिकायती आवाजें उठने लगी … मालूम नहीं, इसके पीछे क्या कारण हैं? यह हमारा अज्ञान भी हो सकता है पूर्वाग्रह भी. हम जानते ही नहीं या फिर जानना नहीं चाहते!

शिकायत के स्वर ठीक मेरे कानों पर गूँज रहे थे …

कि ये कौन-सा पैमाना पैदा कर डाला आलोचक महोदय! पूरे तिब्बत-हिमालय की परिक्रमा करके हिंदी में डायरी-साहित्य लिखने वाले पहले घुमक्कड़ लेखक नैन सिंह रावत उर्फ़ ‘पंडित’ को तो भूल ही गए तुम,कि चलो, वो राइटर नहीं, कहते हैं, जासूस था; मगर गुमानी तो अपना आदमी था, उसे भी तुमने किस्सागो मानने से इंकार कर दिया.

कि माना, गुमानी चमत्कारी गणतुए थे, लेकिन प्रकृति के सुकुमार कवि गंगादत्त पन्त उर्फ़ सुमित्रानंदन?… सारी दुनिया जिसे पूजती है, तुमने उन्हें भी भुला दिया,

कि माना, वो तो कवि थे, मगर पृथ्वीराज कपूर के शागिर्द ‘खूनी लोटा’ वाले गोविन्द बल्लभ पन्त और परामनोविज्ञान वाले इलाचंद्र जोशी उर्फ़ ‘जहाज का पंछी’ तो गद्य लेखक थे. उन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था हे आलोचक!

और क्या बिगाड़ा था कामरेड-त्रय : रमाप्रसाद घिल्डियाल उर्फ़ ‘पहाड़ी’, ‘यमुना के बागी बेटे’ वाले विद्यासागर नौटियाल और ‘सरग दद्दा पाणि-पाणि’ वाले राधाकृष्ण कुकरेती ने; और नागनाथ पोखरी के चंद्रकुंवर बर्त्वाल ने; तुम्हारे अल्मोड़ा की ही गौरा पन्त उर्फ़ शिवानी ने और ‘बेड़ू पाको बारामासा’ गाने वाले मोहन उप्रेती ने!… ये सरासर पक्षपात नहीं तो और क्या है आलोचक महोदय!

आलोचक का जवाब:

माफ़ करेंगे, पिछली क़िस्त में शैलेश मटियानी के पहले उपन्यास ‘बोरीवली से बोरीबंदर तक’ का प्रकाशन वर्ष गलत छप गया था. इसलिए भूल सुधार के साथ निवेदन है कि 1959 में प्रकाशित शैलेश जी का यह पहला उपन्यास है और बीती सदी के पाँचवे दशक में मुंबई के उनके अनुभवों का यथार्थ लेखा-जोखा है. मनोहरश्याम जोशी के अनुभव भी इसी के दो-एक साल बाद के हैं जिनका जिक्र पहली क़िस्त में किया जा चुका है. हालाँकि उनके उपन्यास ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ का प्रकाशन 1980 का है, मगर बोरीबली से बोरीबंदर तक के जिन अनुभवों का जिक्र जोशी जी की इस किताब में है, वे मटियानी के ही समकालीन हैं.

मटियानी और जोशी से पहले हिंदी साहित्य में पहाड़ की उपस्थिति हरे-भरे पहाड़ों-जंगलों और सपनीले रूमानी शरणस्थलों के रूप में थी. अपने पुरखे लेखकों से अलग इन दोनों लेखकों ने पहली बार पहाड़ को सपनों के आकाश से यथार्थ की धरती पर उतारा.

यही वह दौर था जब पहाड़ों समेत समूचे भारत में नए पढ़े-लिखे मध्यवर्ग का उदय हुआ. इस पीढ़ी ने आजादी से पहले और बाद के हिंदुस्तान को करवट लेते हुए साक्षात देखा और महसूस किया. इनके पास अपने सपने भी थे और उनके टूटने का मोह भंग भी. देश की मुख्यधारा का हिस्सा बनने के लिए ये युवा अपने गाँवों-कस्बों को छोड़कर नगरों-महानगरों की ओर भागने लगे और लम्बे समय तक एक अजीब से अवसाद के भँवर में फँस गए.

इन लेखकों की सन पचास-साठ की दुनिया में थोड़ा गहरे जाकर पैठेंगे तो आप पाएंगे कि पहाड़ से निकले इन मध्यवर्गीय युवा रचनाकारों में न तो रेणु-शिवप्रसाद सिंह-लक्ष्मीनारायण लाल की तरह का रूमानी गाँव है, न कमलेश्वर-राजेन्द्र यादव-मोहन राकेश की तरह का टूटते-जुड़ते प्रेम-संबंधों का अवसाद और न निर्मल वर्मा-मन्नू भंडारी-उषा प्रियंवदा की तरह का अवसादमय महानगरी वर्तमान. हिंदी साहित्य को उस दौरान जिस रूमानी भावुकता ने जकड़ा हुआ था, देखा जाये तो इन अल्मोड़िया ‘डेढ़ यारों’ ने उन्हें शहरी मध्यवर्गीय कुंठाग्रस्थता से मुक्त किया. हालाँकि उसका एक रूप है यहाँ भी मौजूद था, जैसे कोसी का घटवार और दाज्यू वाला नॉस्टाल्जिया, शिवानी वाली गलदश्रु भावुकता और हिमांशु जोशी वाली मर्यादा का लेप…

आजादी के बाद भारत का जो नया मध्यवर्ग बना, ऐसा नहीं है कि वह पहाड़ों, मैदानों या सागर-तटों पर अलग-अलग तरह का बना, मगर इतना तो तय है कि इस बीच अनेक कारणों से विभिन्न समाजों के एक-दूसरे में विलयन से उनका नया चरित्र निर्मित हुआ, उनके प्रकृति और सामाजिक रिश्तों में व्यापक परिवर्तन सामने आया और एक साथ एक ही परिवेश में अनेक मध्यवर्ग निर्मित हुए. इसी के साथ शुरू हुई युवाओं की अपनी जड़ों और अस्मिता की तलाश का सिलसिला. शैलेश मटियानी और मनोहरश्याम जोशी के आरंभिक लेखन में तलाश की यह जद्दोजहद बहुत साफ दिखाई देती है और शायद समूचे हिंदी साहित्य में यह दृष्टि पहली बार सामने आई.

शैलेशजी पहाड़ी गाँवों-कस्बों से सीधे अंकुरित रचनाकार थे जब कि जोशीजी में भोगे हुए जीवन की अपेक्षा स्मृति द्वारा अर्जित अपनी जड़ों और परम्पराओं का रचना-संसार है. यह तुलना मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि गाँवों का कस्बों, कस्बों का शहरों और शहरों का महानगरों की ओर का यह पलायन अल्मोड़ा से मुंबई तक का ही नहीं था, यह कहानी पूरे देश की थी. कम-से-कम यह विडंबना समूचे हिंदी समाज की सच्चाई तो थी ही.

शैलेश जी और जोशी जी दोनों ही एक ही समय में अपने मूल स्थान से महानगर की यात्रा करते हैं फिर भी दोनों अपने जिस अतीत को याद करते हैं वो एक-दूसरे से अलग है. शैलेश महानगर में जीते हुए भी अपने बीहड़ गाँवों, अभावग्रस्त लेकिन छोटी-सी इकाई के बीच खुशहाल जी रहे समाज, जाति और वर्णगत असमानता के बीच भी गुंथे-विकसित हुए परिवेश को स्मरण करते हैं; जोशी अपने कस्बाई अंतर्विरोधों को महानगरी जीवन की विसंगतियों के साथ जोड़कर याद करते हैं.

यही हैं हिंदी साहित्य को इन ‘अल्मोडिया डेढ़ यारों’ की मौलिक देन.

(चालू आहे)

फ़ोटो:  मृगेश पाण्डे

 

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

उत्तराखंड में सेवा क्षेत्र का विकास व रणनीतियाँ

उत्तराखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक व पर्यावरणीय विशेषताएं इसे पारम्परिक व आधुनिक दोनों प्रकार की सेवाओं…

2 days ago

जब रुद्रचंद ने अकेले द्वन्द युद्ध जीतकर मुगलों को तराई से भगाया

अल्मोड़ा गजेटियर किताब के अनुसार, कुमाऊँ के एक नये राजा के शासनारंभ के समय सबसे…

6 days ago

कैसे बसी पाटलिपुत्र नगरी

हमारी वेबसाइट पर हम कथासरित्सागर की कहानियाँ साझा कर रहे हैं. इससे पहले आप "पुष्पदन्त…

6 days ago

पुष्पदंत बने वररुचि और सीखे वेद

आपने यह कहानी पढ़ी "पुष्पदन्त और माल्यवान को मिला श्राप". आज की कहानी में जानते…

6 days ago

चतुर कमला और उसके आलसी पति की कहानी

बहुत पुराने समय की बात है, एक पंजाबी गाँव में कमला नाम की एक स्त्री…

6 days ago

माँ! मैं बस लिख देना चाहती हूं- तुम्हारे नाम

आज दिसंबर की शुरुआत हो रही है और साल 2025 अपने आखिरी दिनों की तरफ…

6 days ago