अधिकारी बन पड़ने की ट्रेनिंग
इन सबके साथ जो आश्चर्यजनक चीज़ हुई थी वो ये कि मैं, जो किसी भी दशा में संतुष्ट नहीं रहता था अब लगभग खुश था. अभी भी दूसरे पायदान पर ही था लेकिन खुश था. तीसरे पायदान से एक कदम आगे एक सीढ़ी ऊपर. तीसरा पायदान यानी कि मेरे जीवन की पहली सरकारी नौकरी. अंग्रेजी-हिंदी अनुवादक, विदेश व्यापार निदेशालय, कमरा न.310, उद्योग भवन, नई दिल्ली वाली नौकरी.
नौकरियों को इस तरह पायदानों में बांटना इसी समाज ने सिखाया था जिसने यह भी सिखाया था कि अगर एक बार नाम के आगे `आई’ लग गया तो गुरु मजे ही मजे हैं. ट्रेनिंग के दौरान अभी भी एक धुंधली सी आशा थी कि नौकरी `आई’ वाली हो ही जाएगी. वो तो जब मंदिर के दरवाजे मेरे लिए पूरी तरह बंद हो गए और `दर्शनों का समय समाप्त हुआ’ की तख्ती टंग गयी तब जाकर सपने के टूटने और नींद खुलने का दंश हुआ. लेकिन ये लम्हा तीन साल बाद आने वाला था फिलहाल मैं खुश था, कम से कम दिखता तो ऐसा ही था.
सरकारी तो मैं पहले ही हो चुका था, ये अधिकारी बन पड़ने की ट्रेनिंग थी. सरकारी और अधिकारी के कॉम्बीनेशन की पहली झलक पड़ोस के सदाकांत शुक्ल अंकल से मिली थी जो लखनऊ के जिलाधिकारी रह चुके थे और जिनके पास ज्ञान का अकूत भण्डार माना जाता था क्योंकि जिस दौरान वो कुम्भ मेला इलाहाबाद में थे कहतें हैं कि किसी भी महामंडलेश्वर से ज्यादा लोग इन्हें सुनने के लिए आने लगे थे. यद्यपि धर्म और संस्कारों से मेरे उलझे हुए सम्बन्धों को मैं कभी सुलझा नहीं पाया तथापि उनकी गीता, दूध और दूध की केमिस्ट्री वाली उक्ति मुझे हमेशा याद आती है. `जैसे दूध से पौष्टिकता प्राप्त करने के लिए ये जानना आवश्यक नहीं है कि दूध की केमिस्ट्री क्या है, बस दूध पीते रहें पुष्ट होते रहें उसी तरह से गीता की गूढ़ बातों को बहुत समझने के लिए कब, कहाँ, किसने, क्यों जैसे सवालों से न जूझें बस गीता पढ़ते रहें ज्ञान प्राप्त करते रहें.’
दूसरा कॉम्बिनेशन सरकारी के साथ अधिकारी की पत्नी का है जो मेरे अनुभव में सिक्के के दूसरे पहलू का दूरदर्शन साबित हुआ. राज कॉलोनी में हमारे घर के पास एक अनाथालय हुआ करता था. सरकारी वाला. उस जमाने में खूब सारे बच्चे हुआ करते थे वहाँ. इतने सारे कि हम मुहल्ले के बच्चों को उनकी संख्या से रश्क होता था. ये कीड़ा दिमाग में पहली दफा शायद बस इतनी सी बात पर कुलबुलाया था कि वो हमारे साथ क्यों नहीं खेलते. अब या तो बच्चे अनाथ होना बंद हो गए हैं या सरकार ने अनाथ होने की मान्यता समाप्त कर दी है, बच्चों की संख्या कम होते-होते तीन साल पहले वो अनाथालय बंद हो चुका है.
जाड़े के दिनों में बाहर गली में तखत पर बैठ कर खूब चीख-चीख कर वो पहाड़े रटा करते थे. बाल दिवस, स्वतंत्रता दिवस, गांधी जयन्ती पर हम स्कूल निपटाकर अपने घर के अहाते में आ अनाथालय के बच्चों के खेल देखा करते थे. जलेबी रेस बहुत पसंद थी हमें. दूर से दौड़ते हुए आये और चप्प से जलेबी मुह में. उनकी दौड़ के दौरान हमारे मुह भी खुले हुए होते थे.
अनाथालय के वही बच्चे जो मुहल्ले के नाथ बच्चों के लिए अघोषित रूप से अछूत थे उनसे मिलने कभी-कभी कुछ मेमसाहबें आती थीं. अम्बेसडर गाड़ियों के दरवाजों के खुलने बंद होने की आवाज से हमें पता चल जाता था कि आज अधिकारियों की पत्नियां आयी हैं और कि आज बच्चे कुछ अच्छा खाने वाले हैं. मेमसाहब केले, बिस्कुट, नमकीन, समोसे जैसी चीजें लाती थीं और बच्चों को लाइन में बैठाकर खिलाया जाता था. कभी-कभी उन्हें पूरी सब्जी जैसी चीजें भी मिलती थीं जिसके बर्तन उनके जाने के बाद बच्चे अंदर आँगन में धोते थे जो बाद के सालों में बाहर गली में लगे हैंड पम्प पर धोने लगे थे. ये बड़ा परिवर्तन था जो आँखों में तो चुभता था पर जुबान पर नहीं आता था. उस दिन बच्चे सिर्फ उस जैसे दिन के लिए बनाए गए साफ़ सुथरे कपड़े पहनते थे और सुन्दर दिखते थे लेकिन इतने नहीं कि सर पर हाथ फेरने के बाद गाड़ी में बैठते वक्त मेमसाहब रुमाल से हाथ न पोंछे.
हर बार दो चीजें कॉमन होती थीं. फोटो और ताली. सामान बाँटते वक्त बच्चों से ताली बजवाई जाती थी या सामान देखकर उनसे स्वतः निकल जाती थी ये बताना मुश्किल है लेकिन सामान बाँटने वाली फोटो जब दूसरे दिन अखबार में आती थी तो ज्यादा मुस्कुराता चेहरा देने वाले का होता ये बताना मुश्किल नहीं. जाने कहाँ से ये जुमला आकर मन में चिपक गया कि लेने और देने के इस चैरिटेबल खेल में सामान तो दे देते हैं लेकिन सम्मान ले लेते हैं. फोटो खिंचवाकर कम्बल बांटने वालों के लिए मन में अश्रद्धा के बीज शायद तब से ही पड़ने शुरू हो गए थे.
जो दूसरा बीज पड़ा वो ये कि सरकारी अधिकारी कोई तोप चीज होता है. पत्नियों के वैभव को देखकर पतियों के रसूख का पता चलता था. मुझे जाने क्यों लगने लगा कि अगर मैं डीएम (जनता के बीच अधिकारी का सबसे बड़ा सिम्बल) बन गया तो बहुत कुछ कर सकता हूँ, इन बच्चों का स्कूल एडमीशन करवा सकता हूँ, इनके कपड़े रोज साफ़ सुथरे हों ऐसा आदेश दे सकता हूँ, ये भी कह सकता हूँ कि ये मुहल्ले के बच्चों के साथ खेल सकते हैं. आश्चर्य की बात है न कि मुझे अभिजात्य से विलगाव और सरकारी अधिकारीपने से लगाव एक साथ हो रहे थे.
तो ट्रेनिंग के दौरान जब इस सरकारी अधिकारी नामक तोप में जो गोले भरे जा रहे थे उनकी पहली आधिकारिक गूँज हमें पिथौरागढ़ जाकर सुनाई दी. इसे विलेज स्टडी टूर का नाम दिया गया. विलेज टूर भी कह सकते थे लेकिन इस बात की तस्दीक कैसे हो कि हम एक ट्रेनिंग सेंटर में थे और ये टूर हमारी ट्रेनिंग का एक हिस्सा था.
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता)
(पिछली क़िस्त से आगे)
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