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अंतरिम बजट का कौतिक

कल केंद्र में एनडीए सरकार अंतरिम बजट (Interim Budget) जारी करने वाली है. एक आम आदमी की भाषा में प्रोफेसर मृगेश पांडे बता रहे हैं कि यह अंतरिम बजट किस प्रकार भारत को प्रभावित करेगा: सम्पादक

पहली फरवरी को एनडीए सरकार अपना पांचवाँ बजट पेश करने जा रही है. यह अंतरिम बजट होगा. उम्मीद है कि जुलाई 2019 तक ही इसका श्रृंगार-पिटार हो पायेगा. अभी तो बड़े तनाव-दबाव-कसाव हैं. बजट की अटैची भी वित्त मंत्री पीयूष गोयल के हाथ में रहेगी. वित्त मंत्री अरुण जेटली बीमार हैं और इलाज कराने अमेरिका गये हैं. 21 जनवरी को ‘हलवा सेरेमनी’ के बाद से ही बजट के प्रपत्र छपने शुरू हो गये हैं. परम्परा है कि बजट के साथ ही ‘आर्थिक सर्वेक्षण’ भी पेश होता है. पर इस बार एक दिन पहले इसके दीदार नहीं होंगे. खबर है कि राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के कार्यकारी अध्यक्ष ने भी अपना इस्तीफा सौंप दिया है. इस बार अंतरिम बजट होने से अर्थ अनुष्ठान भी थोड़ा कम होंगे. बजट भाषण थोड़ा छोटा होगा फिर भी बजट सत्र 31 जनवरी से शुरू हो 13 फरवरी तक चलेगा.

सरकार पूर्व वित्त मंत्रियों प्रणव मुखर्जी और पी. चिदम्बरम की राह चलते राहत पैकेज की गठरी में, करों में भी बदलाव कर सकती है. अंतरिम बजट में छूटा का पुलिंदा हाथ पड़ सकता है. 2009-10 के अंतरिम बजट के डिसकशन में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने उदारीकरण से अघाये पस्त पड़े देश में ग्लूकोज/सेलाइन चढ़ा की कुछ गर्मी लाने के लिये सेवा कर और एक्ससाइज ड्यूटी में 2 प्रतिशत छूट की बात की थी तो 2014-15 के अंतरिम बजट में पी. चिदम्बरम ने सेवा कर और कस्टम ड्यूटी में बदलाव के साथ आटोमोबाइल सेक्टर के लिये एक्साइज ड्यूटी में छूट की हामी भरी थी. पर तब प्रत्यक्ष कर में कोई छेड़खानी नहीं की गयी. अब सेवा कर और केन्द्रीय एक्साइज ड्यूटी जीएसटी में शामिल हैं सिवाय पेट्रोलियम उत्पादों के. जीएसटी के सारे फैसले इससे संबंधित काउन्सलिंग ही करती है.

इस बजट में मेक इन इंडिया के टेक ऑफ़ के लिये कस्टम ड्यूटी में सुधार और कुछ आकर्षक छूटें प्रदान करने के प्रलोभन भी दिये जा सकते हैं. डिजीटल हस्तांतरण बढ़ पाये और टैक्स पेयर के लिये छूट सीमा 3.5 लाख रुपये कर देना भी आम शहरी को रिझा देगा. दूसरा प्रलोभन कारोबारियों के लिये लालीपॉप जैसा होगा क्योंकि संगठनों के लाला बनियों ने सरकार बहादुर के कान में डाल दिया है कि दो करोड़ से कम वाले व्यापारियों के लिये लागू ‘प्रिवेंटिव टैक्स स्कीम’के दायरे में मोबाइल वॉलेट, सभी पेमेंट एप्स और क्रेडिट कार्ड को भी समा लिया गया. सामान्य स्कीम में कारोबारी की रकम उसके टर्न ओवर का आठ प्रतिशत मान ली जाती है जबकि डिजिटल भुगतान में यह छह प्रतिशत ही मानी जाती है. और तो और इन व्यवसायियों को एकाउंट बुक मेंटेन करने से भी छूट मिलती है. डिजिटल पेमेंट पर बैंक पैसे ट्रांसफर पर दो प्रतिशत शुल्क लेते हैं अब इससे छूट मिलने की बात हो रही है. जब कारोबार बढ़ेगा तभी विकास उछलेगा. इसलिये जीएसटी पंजीकृत व्यापारियों को पांच प्रतिशत की दर से बैंक ऋण मिले और एक लिमिट तक कर दे देने वालों को भी कर में छूट मिले. साथ ही व्यापारियों के लिये सामाजिक सुरक्षा स्कीम के अधीन बीमा और पेंशन पैकेज भी अंतरिम बजट में शामिल हों, नहीं तो ? वैसे 10 जनवरी 2019 को सरकार ने राष्ट्रीय बिक्री कर नियमों में परिवर्तन की बात कह दी है. जिससे दो मिलियन लघु व्यापार को फायदा पहुंचेगा. सरकार यह भी विचार कर रही है कि लघु व्यापार को सस्ता ऋण व मुफ्त दुर्घटना बीमा कवरेज भी दे. वहीं उसकी मंशा है कि 40 लाख रुपये तक के व्यवसाय को जीएसटी से मुक्त रखा जाये जो अभी 20 लाख रुपये की सीमा में है.

आप भी कर दाता हैं, बड़ी छूट चाहिये ? पर ये तो जान लीजिये कि पिछले कुल जमा साढ़े चार साल में सरकार का कुल कर्जा लगभग 50 प्रतिशत बढ़ कर 82,03,253 करोड़ रुपये मात्र हो गया है. ऊपर से दिया गया ‘टैक्स इंसेंटिव’ जिससे सरकार की आय निल बट्टे सन्नाटा. अब ये भी कहा लिखा जा रहा है कि ‘टॉप टेन इंसेंटिव से सरकारी गठरी में 75,252 करोड़ रुपये की आगम यानी रिवेन्यू की पुट्टी झड़ चुकी है. ये बात सही है कि करदाता ‘जागरूक इंडियन’बनें, तो उनकी भी उम्मीदें हैं, हसरतें हैं और उन्हें सेक्शन 80 सी के तहत छूट सीमा में पचास हजार करोड़ की बढ़ोतरी चाहिये. अब अगर ऐसा हो गया तो 30 प्रतिशत कर स्लैब यानी दस लाख वार्षिक से अधिक आय वाले लोग 15,000 रुपये तो बचा ही लेंगे साल भर में. ‘जिम्मेदार सिटीजन’ की इस श्रेणी में एक करोड़ लोग तो होंगे ही. डिजीटल इंडिया में तो सट्ट से 50,000 करोड़ रुपये कर के दायरे से बाहर छटक जायेंगे. सरकार को पन्द्रह हजार करोड़ रुपये का चूना लगेगा. 2013-14 में 80-सी की छूट में 25,491 करोड़ का रेवेन्यू लाॅस झेला गया था. 2014 से हानि बढ़ती ही गयी जो इस साल तक 58,933 करोड़ हो गयी है. 2016 में कर बचत सीमा 50 हजार करते हुए 80-सीसीडी 1 बी में ‘एनपी.एस. कन्ट्रीब्यूशन’ पर टैक्स छूट मिली अतः बचत सीमा अभी जो दो लाख है उसे तीन लाख करने की मांग प्रबल है, तो सीनियर सिटीजन के लिये यह लिमिट साढ़े तीन लाख करनी होगी.

ईमानदारी से टैक्स देने वालों और टकटकी लगाये सीनियर सिटिजनों को सरकार अगर यह राहत देने का दम रखती है तो यह जान लीजिये की करीब 2.7 करोड़ लोगों के लिये आधारभूत छूट सीमा 3 लाख रुपये है. यह भी जान लीजिये कि 3.5 लाख वार्षिक वाले मध्यवर्गीयों को 87 ए में 2500 रुपये की छूट मिलती है. अब जितने ईमानदार रिर्टन फाइल करते हैं क्योंकि वह सरकारी कॉर्पोरेट सेवाओं में हैं जहां पाई-पाई आय पर कड़ी नजर होती है. उनकी संख्या लगभग 5.7 करोड़ है. इनमें से 1.5 करोड़ की आय 3.5 लाख रुपये वार्षिक से अधिक है. अब अगर इनके लिये कर छूट सीमा को पचास हजार रुपये बढ़ाया गया तो 75,000 करोड़ रुपये सरकारी कर आगम की गठरी में छटक जायेंगे और तो और सीनियर सिटीजन की लिमिट बढ़ाने और अन्य कारणों से 4,500 करोड़ रुपये के और छेद हो जायेंगे.

ऊपर से अंतरिम बजट में कर आतंकवाद की छाया बनी हुई है. 2015-16 के बजट में कर-आतंक के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक करते हुए बेहतर और गैर प्रतिकूल कर प्रशासन का वादा किया गया था. तब बताया गया कि सन् 2014 में चार लाख करोड़ रुपये की कर मांगें संदेह के घेरे में थी और 4.70 लाख मामलों की फाइलें रिमांड पर हैं. 2018 तक आते-आते अटकी-लटकी कर अपवंचना 7.40 लाख करोड़ रुपये हो गया. गौर कीजिये इस साल जितना कर बटोरा जाना तय हुआ था यह उसका आधा हिस्सा है.

जनप्रतिनिधियों संतरी-मंतरी की उद्घोषणाओं, स्वागत भाषण सत्कार, हलवा खिचड़ी भोग और अनवरत हवाई यात्रा के बाद जनता से रुबरु होने का खर्च भी तो जनता की जेब से आता है. इस समीकरण को हृदयंगम कर कभी-कभार तो व्यय प्रबंधन नीतियों की पुरजोर वकालत होती है. 2014-15 के बजट में ही साफ कर दिया गया कि अब खर्च हाथ रोक कर होंगे. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये ऐसे सुपात्र जजमान की खोज हुई जिसकी उंगलियों के बीच छेद न हों. हथेलियां गहरी हों ताकी संकल्प लेते हुए पानी धरती पे न गिरे. सो अर्थशास्त्र के जाने-माने रिजर्व बैंक के पूर्व गर्वनर विमल जालान को अक्षत पिठ्या लगा. अब उन्होंने तो पतड़े लिखे वह आम जन तक तो पहुंचे ही नहीं.

फिर 2016 में बताया गया कि ईएमी की संस्तुतियां जिनके पन्द्रह टाइटिल हैं को हर संबंधित मंत्रालय व विभागों तक त्वरित सेवा से पहुंचा दिया गया है. अब उर्जित पटेल को निजी कारणोंवश मैदान छोड़ने के बाद चतुर चितेरे नीति निपुण जालान साहब फिर यह जिम्मेदारी लेने आ गये हैं और यह बताने कि रिजर्व बैंक अपने भंडार से कितनी गठरी सरकार के हवाले कर सकती है. जिससे लोक लुभावन सबको खुश कर देने वाली ‘ची-मुस्कान’देश भर में फैल सके.

समस्यायें गंभीर हैं. अब इतने साल से आजाद हो गये भारत के मुख पर चिंता की रेखायें तो होंगी ही. आजाद भारत का पहला बजट 26 नवम्बर 1947 को आर के शंखमुख ने सदन में पेशा किया था. तब से सरकारी ढाबे-उपक्रम-प्रतिष्ठान-संस्थान-कम्पनी-निगम अपनी कमजोर रीढ़ यानी इन्फ्रास्ट्रक्चर की दुर्बलता, अधिकारी कर्मचारियों की सरकारी कर्म निष्पादन शैली नियमावली के चलते घाटे पर घाटा खाये जा रही है. अब एयर इंडिया हो या सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक. एक तो घाटा उपर से ग्राहक से वक्त-बे-वक्त अशिष्टता, मारपीट, दबंगई और उत्पीड़न. शुक्र है अभी तक मीटू वाले केस नहीं खुले हैं. 2015-16 के बजट में घाटे के दस्तों से परेशान इकाइयों में ‘डिसइंवेस्टिमेंट और स्ट्रक्चरल डिसइंवेस्टिमेंट’ का वादा किया गया फिर 2017 में 24 इकाइयों का चयन किया गया पर केवल एच-पी-सी-एल का राजनीतिक विनिमेश हुआ. अभी 80 से अधिक सार्वजनिक क्षेत्र के इंटरप्राइज घाटा झेल रहे हैं. 2007 से 2017 के दम सालों में घाटे का बोझ मात्र 2,23,859 करोड़ रुपये का रहा. राफेल की डील भी ऐन मौके पर एचएएल को नहीं मिली. बांकी सर कैसे उठायें. बस इसरो इनसे अलग है.

2014 के बजट में वादा किया गया था कि प्रधानमंत्री एक शतक यानी ‘एक सौ स्मार्ट सिटी’ डेवलप करेंगे और इसके लिये 7060 करोड़ रुपये बटेंगे. पर हाय रे शेख चिल्ली और तेरे ख्वाब. कहां फुर्र हो गये नये शहरों के वायदे और स्मार्ट सिटी का विज्ञापन. जुलाय 2018 में संसद की स्थायी समिति ने पाया कि स्मार्ट सिटी में 9943.22 करोड़ रुपये के मात्र 182.62 करोड़ ही खर्च किये जा सके हैं. अर्थात कुल का 1.8 प्रतिशत. अब अभी तक 10,504 करोड़ के खर्च का ढोल बजा था पर ढोलक बजी 931 करोड़ रुपये की. तो क्या हुआ ! इसे कहते हैं प्रशासनिक कंजूसी और सरकारी बचत. अब आय हर राज्य में विधायक निधियों पर करोड़ों रुपयों में दी जा रही है रकम पर काक दृष्टि डालें तो पायेंगे कि वहां भी आंशिक खगास और जो खर्च भी हो रहा है वह उद्घाटन पट्टिका के शिलापूजन व लोकार्पण में थपका दिया जा रहा है.

‘ट्रायल रोड ऐरर’ और ‘हिट एंड रन’ के नित नव प्रयोग होते रहे हैं बजट में. उदारीकरण वैश्वीकरण सब हो गया. लक्ष्मी-गणेश, बिजली की माला तक में विदेशी निर्भरता बढ़ गयी. बरगलाये रखने को अतुल्य भारत, मेक इन इंडिया के मकड़जाल, विज्ञापन बढ़ाते जापानी तेल वाले अखबारों, सरकारी मुंह की सुरसा लपलपाते चैनलों और झोलों में गुम पाम मार्गियों के पांडित्य में गदबदाते रहे. किंगफिशर की हसीन बालाओं के सीमित परिधान वाले कलेंडर गली मोहल्ले में बंट गये और मालिक अरबों-खरबों डकार कर उड़ गया. औरों को भी ले उड़ा.

गांव पिछवाड़ा खुजाते रहे. ग्रामीण भारत-ग्राम स्वराज-स्वालम्बन वालों को पोंगा पंडित माना गया. आजादी से पहले का बांबे प्लान भी पूर्णतः मारवाड़ी, पारसी धन्नासेठों की चरण वंदना था. दूसरी योजना में प्रोफेसर प्रशांत चन्द्र महालनोबीस ने औद्योगीकरण का जो ‘फोर-सेक्टर माडल’ विकसित किया वह है हैरोल्ड-डोमर, फेल्डमेंन के पूर्ण रोजगार की संकल्पना छूता हुआ. बेरोजगारी के मौसमी, चक्रीय, संरचनात्मक रूप को नकारता हुआ. 1966 में रुपये के अवमूल्यन जैसी नाक कटा गया. तदन्तर नीचे से नियोजन और टिकिल डाउन स्ट्रेटजी के फेविकोल और डॉक्टर फिक्सिट के प्रयोग हर बार बदली सरकार में हुए. इमरजेंसी में तो आजाद भारत की हर बदनुमा चीज उखाड़ फेंको और जबरन काट डालो के नवोन्मेष भी हुए. पर फिजा बदल गयी. नेहरू जी तो बस विदेशी टीम टाम में पड़ आजाद हिंदुस्तान के लिये यही चाहते थे न कि शहरीकरण हो. उद्योग फले-फूलें. उस पर संरक्षण का जमाना. अच्छे भले आबाद गांव छोड़ लोग खिसकने लगे शहर. शहरीकरण से सड़क, पानी, बिजली, अस्पताल मिला और हवा पानी कच्चे माल के लिये गांव उजड़े. उन्हें मनी आर्डर इकानमी की संज्ञा दी गयी. बुनियादी सुविधाओं के ठोस-ठस्स विकास के लिये आॅल वेदर रोड, बुलेट टेन, विशाल बाधों की प्रस्तावना कई हृदयों में कम्प करती रही. पर्यावरण-पारिस्थिति की मानकों को ताक पर रख दिया गया. हरियाली सिसकती रही. भूख अकाल बेरोजगारी मुफलिसी पर काम कर रहे अमत्र्य सेन और झोलाधारी ज्यां द्रीज न जाने कहां भटक रहे. कोई सुनता ही नहीं.

अब मई 2019 में चुनावों की पूर्णाहुति है. अंतरिम बजट पेश हो रहा है. खर्चे की मार अगली सरकार पर पड़गी. पिछले चुनावों में हो पड़े ‘सैट बैक’ को देखते सरकार कृषक, लघु व्यवसायियों व मध्यमवर्गियों को लुभाने की पुरजोर कोशिश में है. किसान एकजुट हो अपनी व्यथा गाथा को लगातार चल रहे धरने-प्रदर्शन जुलूसों में कोस हजार कोस तक यात्रा पद यात्रा कर जंतर-मंतर से चैराहों तक दिखा चुके हैं पर असली मुद्दा सरकार सूंघ नहीं पा रही क्या कि उत्पादन बढ़ा कर दिखाने के बाद भी उनकी हालत फांसी का फंदा ही क्यों चुनती है. क्यों किसान, बटाईदार अपने बबुआ-नाति को दूसरा धंधा चुनने की नौराट-पिराट करता रहता है. खेतिहरों को तुरंत राहत देने के लिये कोषों का प्रत्यक्ष हस्तान्तरण और न्यूनतम सहायता कीमत को नरम करने के साथ ही समय पर चुका दिये जाने वाले कृषि कार्य की ब्याज माफी पर मंथन जारी है. ऐसे ब्याज मुक्त उधार जो राज्य के अधीन बैंकों से दिये गये उन्हें सरकार क्षतिपूर्ति करेगी जिससे करीब 12,000 करोड़ रुपये का भार सरकारी गठरी पर पड़ेगा. किसानों को ब्याज मुक्त ऋण देने के स्थान पर दो से चार हजार रुपये दिये जाये. ऐसा करने में न्यूनतम एक लाख करोड़ रुपये की लागत आयेगी. सरकार का तीसरा कम चाहा जाने वाला विकल्प यह है कि कृषि ऋण में उस तरह से मदद देने का अनुसरण न किया जाये जैसा उसकी प्रतिद्वंदी पार्टी राज्य के चुनावों में जीत के बाद देने की हामी भर चुकी है. मतलब साफ है कि खेती के उधार की माफीदारी से समस्या खत्म नहीं होगी. अब सरकार बहादुर किसानों की मदद को कौन से दीर्घकालीन उपाय करती है यह प्रस्पेक्टिव प्लानिंग की दूरदर्शिता पर निर्भर करेगी. पर नजर तो पास के चुनावों पर है.

यह दुहश देना जरूरी है कि खेती का संकट किसान को पीढ़ियों से सताते रहा है. दो बीघा जमीन से इतर जो भूमिधार-भूस्वामी थे उन्होंने भी मौका ताड़ कर जमीन की नाप-पैमाइश खुर्द-बुर्द कर कार, फ्रिज, टीवी, मोटर साइकिल, महंगे मकान और माॅल के साथ मस्त विलासिता की विहंगम डोर पकड़ ली. उनकी औलादों में बहुत थोड़े ‘सस्टेनेबल ग्रोथ’ को समझ पाये बांकी तो ‘बड़े धक्के के सिद्धांत’जिसे ‘बिगपुश’भी कहा जाता है कि गिरफ्त में ‘उड़ता पंजाब’हो गये. पूर्वोत्तर, सीमांत इलाकों, गांव-कस्बों में गर्द चरस, कोकीन, एलएसडी के साथ ड्रग्स का जो मकड़जाल विकसित हुआ है उसमें भावी सपूतों में प्रवाहित नीले फीते का जहर सर्वाधिक है. खेती किसानी पानी में भीगा ऐसा बताशा हो गयी है जहां गंवार भारत की प्रति व्यक्ति आय माॅर्डन इंडिया के सापेक्ष आधी से ज्यादा गली लुजलुजी गयी है. हर बार खेती किसानी के दुर्भाग्य की बरसी में तरपण, पिंडदान को आईसीएआर, स्वामीनाथन जैसे पीठों और पंडितों को तृप्त किया जाता रहा है. पर पितर तृप्त होते ही नहीं. खेतिहर, भूमिहार के लिये पुरातन महाजनी कर्मकांड छोड़ना सूदखोर लाला बनियों से बच पाना और कुल जमा मंडी हाट में जा फसल की सही कीमत पा लेना सपना ही बना है. अर्थशास्त्र में एक शब्द है ‘पेरिशेबुल कमोडिटी’ जो अति अल्पकाल व अल्प काल में जल्दी विनिष्ट हो जाती है.

किसानों से यह उम्मीद की जा रही है कि वह खाद्यान्नों, मसालों, नकद फसलों में नमी का एक प्रमापीकृत स्तर बनाये रखें जिससे उन्हें सही कीमत व प्रोत्साहन मूल्य मिले पर उनकी किस्मत में तो फटे हाली, उधार और रस्सी का फंदा है जो अभी तक गवांड़ी भारत की शिराओं में प्रवाहित अन्न दूध को तमाम कृषि विश्वविद्यालयों में प्रयोगशालाओं के साथ प्रोफेसर, वैज्ञानिकों की ज्ञान से तपी श्वेत श्याम होती दाढ़ी और टकले हो गये सर के आवश्यक न्यूनतम प्रयास के परे हिमोग्लोबिन का पर्याप्त स्तर बनाये रखने में समर्थ नहीं हो पाया है. जिस हरित क्रांती की बात की गयी उसने परम्परागत किस्मों और बीजों की पूरी पीढ़ी पर च्यूं उगा दी. बाजार में ढूंढने पर भी आपको तिलक और बिंदुली चावल नहीं मिलेगा. अब तो 7121 व 1128 की फसल रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों की छाया में उगे पाॅलिश व कटिंग से पुलाव-बिरयानी परोसती है. लाल दूधिया चावल तो घर में खाने के लिये सीमांत की रसोइयों में ही खुशबू बिखेरता है. ठीक यही हाल दाल मसालों का है जो चटक पैकेटों के रंगीले विज्ञापनों से किचन महकाते हैं. लागत से दस-बीस-पचास बुनी कीमतों पर. मिलावट अलग से. सिलबट्टे में खड़े मसाले पीसने का सशक्तीकरण भी विलुप्त है.

दो साल पहले 2017 के बजट में सरकार बहादुर ने अनुबंध खेती का वादा किया था. इससे पहले भी पहाड़-पठार में चकबंदी, सामुहिक खेती की सौल-कठौल होती रही है. पर इनका प्रारूप या माॅडल अभी तक कौन से राज्य ने लागू किया यह यक्ष प्रश्न है. 2014 में ग्राम पंचायतों को स्वस्थ, सबल, सांड-मुसंड बना देने का टारगेट तय था तो 2017 के बजट में पंचायतों को कैडर निर्माण में स्वस्थ सबल बनाने के लिये एक प्रोग्राम का वादा किया गया था पर उसकी प्राथमिकतायें क्या हों पर अभी भी सर खुजाया जा रहा है. मई 2017 में शहरी विकास मंत्रालय ने राज्यों को 3,784 जनगणना शहरों को शहरी स्थानीय निकायों में बदलने के लिये कहा. इससे कम से कम दो लाख लोगों को काम मिलता पर राज्य अभी तक चुप्पी साधे हैं.

2014 से पहले हुए घपले-घोटाले तो खुल रहे हैं. उत्तराखंड सिडकुल के निर्माण कार्य, नियुक्तियों और भूमि आबंटन पर एसआईटी जांच बैठा दी गयी है जो हजार करोड़ रुपये से अधिक खुर्द-बुर्द होने की जांच करेगी. एन एच का मामला तो है ही. पहाड़ी राज्यों में विकास और पर्यावरण एक दूसरे के लिये राहु-केतु बन रहे हैं. पर वक्र चन्द्रमा उसे न राहु के नियम पर चलते रानीबाग, भीमताल के औद्योगिक आस्थान कैसे दुम दबा कर खिसक लिये. उद्योग धंधों की संवृद्धि के लिये लागू टैक्स छूट के स्पेशल पैकेज पहाड़ी राज्यों में समेकित विकास की वकालत करते रहे हैं. इनका कार्यक्षेत्र भी तराई भाबर ही अधिक होता है. सो मैदानी क्षेत्रों से उत्पन्न प्रदूषण के संक्रमण को पहाड़ी इलाके ही अपने जल-जुगल-जमीन से सिंचित करते हैं. ‘नशा नहीं रोजगार दो’ को बहुत संवेदनशील बना दिया था. सब मोबाइल स्मार्ट फोन से चिपक गये अब.

पर हिमालयी राज्यों से पलायन जारी है. उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने 337 से अधिक गांवों के पुनर्वास के लिये स्पेशल पैकेज, पर्यावरणीय सेवाओं के लिये हर साल चार हजार करोड़ रुपये के ‘ग्रीन बोनस’ दिये जाने की मांग की. पर मामला अभी लटका है. विभिन्न योजनाओं में 90ः10 के अनुपात में पूरा बजट नहीं मिला. केन्द्र सरकार की योजनाओं के एकीकरण के साथ पर्यटन विकास व रोपवे के मामले भी लटके पड़े हैं. राज्य की 32 जलविद्युत योजनायें फिर मंजूरी के लिये अटकी हैं. उत्तराखंड के आलाधिकारियों ने आपदा प्रभावित 398 गांवों के विस्थापन के लिये बजट की मांग की है.

कुछ तो करो अंतरिम बजट के प्रभू…

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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Girish Lohani

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