चुर्रेट मुर्रेट
जादू की लकड़ी घुमाई
ईलम के जोर से हाथ की सफाई
बोल शिताबी क्या लेगा
सास बड़ी कि बहू
बाप बड़ा कि बेटा
धूल में फंक लगाकर रुपया बना दूं
डुग डुग डुग डुग डुग डुग डुग डुग
चल बेटा घुचड़ू हो जा
डुग डुग डुग डुग डुग डुग … (Almora Anecdote Jamoora Vivek Sonakiya)
बचपन की धुंधली यादों में डमरू बजाते हुए भालू का नाच दिखाने वाले मदारी और उसके जमूरे का नाच मन के किसी कोने में गुड़ी-मुड़ी पुड़िया की तरह पड़ा था. इस पूरी निरर्थक कविता को, जिसे मेरे गांव में भालू वाले का मंत्र कहा जाता, के अंत में जमूरा घुचड़ू हो जाता. निरर्थक कविता जिसे गांव वाले मंत्र समझते थे, मूल रूप से साबर मंत्र थे. साबर मंत्रों का कोई शाब्दिक अर्थ नहीं होता. न ही यह सीधे-सीधे समझ में आते हैं. पर यहां मुद्दा साबर मंत्रों पर बहस का नहीं बल्कि घुचड़ू होने का है. (Almora Anecdote Jamoora Vivek Sonakiya)
घुचड़ू शब्द का शाब्दिक अर्थ चौबीस साल की उम्र में एक मित्र के माध्यम से पता चला – एक सम्मोहित व्यक्ति जो आपके इशारे पर स्तम्भित हो जाता है. कुल मिलाकर काठ मारने वाली स्थिति.
कभी इस तरह की अवस्था का अनुभव नहीं हुआ था पर अल्मोड़ा में आकर नियुक्ति के दो-तीन महीने बाद एकाएक एहसास हुआ कि हम तो घुचड़ू बन गए. अल्मोड़ा है ही कुछ ऐसा.
मैंने पाया कि अल्मोड़ा में जिन्दगी और खुद अल्मोड़ा दोनो मदारी की तरह मेरे सामने खुले. एक ऐसा मदारी जो किसी भी जमूरे को घुचड़ू बना दे और किसी भी घुचड़ू को जमूरा बनाने का माद्दा रखता है. और हर पल इस की जुगत भी बैठाने में रहता है.
अल्मोड़ा में अल्मोड़ा ने कई मर्तबा पहले जमूरा बनाया फिर खेलखेल में घुचड़ू. हम भी कई दफा जानबूझकर पहले जमूरे फिर घुचड़ू बनते गए. बिल्कुल प्राकृतिक और ठोस सम्मोहन का शिकार होकर.
फोन रात को सवा ग्यारह बजे बजा तो चौंकना लाजिम था.
“हल्लो“
“अरे ददा और क्या हो रहा कहा“
“अरे उप्रेती जी नमस्कार सब खैरियत तो है, इतनी रात को अचानक“
लाइन पर एक पत्रकार मित्र थे जो लगभग दस चैनलों को एक साथ एक तरह का चूरन अलग अलग पुड़िया बना कर चटाते थे.
“अरे ददा कहां खैरियत. अब तो बड़े भाई की इज्जत आपके हाथ में है. दिल्ली से चैनल का हेड आया ठहरा. पितांबर में टिका है, दारू मांगता है साला. अब इतनी रात गए कहां से क्या हो“
“अरे समस्या गम्भीर है“
“अरे क्या दाजू. कुछ पड़ा हो किसी तरह दिलवाओ. आपके भाई की इज्जत का सवाल हुआ कहा.“
“हम्म“
“सावन के दिन तो पैले से चल रहे हैं साले को रात में दारु चाहिए. अब कहां से लाऊं चील का मूत.“
“अरे रुकिए“ पर तब तक उप्रेती घोड़े की लगाम की चुका था.
“अब तो तुम जानते ही हो कि मैं नहीं पीता पाता यार. कुछ करो, एक बोतल रॉयल स्टैग किसी तरह से हो जाए तो बला टले.“
“ठीक है भाई साहब दस मिनट तो दीजिए कुछ करता हूं “
फोन काट कर एक वरिष्ठ सेल्समैन को फोन किया क्योंकि इंस्पेक्टर साहब के पास कुल छह पव्वे थे जिसमें तीन पव्वे पीकर दाजू पहले से फुल टैट हुये ठरे और हमारे पास शिवाज रीगल की तीन सौ एमएल से कम भरी बोतल बगल में लुढ़की पड़ी थी, जिसे हम किसी से शेयर करने के मूड में न थे. (Almora Anecdote Jamoora Vivek Sonakiya)
“हेलो“
“हां साहब“
“अरे अंकल सुनो तो सही “
पूरे अल्मोड़ा में उस वरिष्ठ को व्यवसाय विशेष के कर्मचारी सम्मान पूर्वक अंकल कहते बुलाते थे. यह अंकल वही है जो इससे ठीक पहले के अध्याय में भसड़ के बाद कंधे उचकाते हुए चले जा रहे थे. कंधे उचका कर चलना उनका ट्रेडमार्क और ज्योग्राफीकल इंडेक्स दोनों थे जो केवल उन में थे और कहीं नहीं.
“जी साहब“
“अरे यार अगर एक रॉयल स्टैग की बोतल पड़ी हो तो भिजवाओ, उप्रेती को देना है“
“अरे सर आप भी फंस गए हो उप्रेती के चक्कर में“ – अंकल जोर से हँसा.
“क्यों“
हम कन्फ्यूज थे.
“अरे सर यह उसका तीस साल पहले का किस्सा ठहरा“
“…”
“दिल्ली से साहब आया बल “
“…”
“चैनल का हेड है बल “
“…”
“दारू मांगता है बल,सावन ठहरा बल“
“…”
“ मैं नहीं पीता-पाता बल.“
अंकल के द्वारा सुनाए गए आंखों देखे हाल से हम स्तब्ध और लगभग आक्रांत से थे.
“ तुम्हें कैसे पता चला “
हमने लगभग सम्मोहन की अवस्था में जाते जाते पूछा.
“अरे सर अभी एक पव्वा दिला देता हूं कहीं से. सही हो जाएगा और आपको मजा देखना हो तो दानपुर भवन के सामने बुला लो. मैं भी लड़का भेज देता हूं फिर मजे देखना.“
“अरे“
मैं लगभग फ्यूज होते होते बच गया था.
उप्रेती को फोन लगाकर कहा
“दादा सॉरी बोतल तो नहीं पर पव्वा हो पाया है. अब इतनी रात को मैं भी कुछ नहीं कर सकता, बार भी साले सब बंद हो गए. अब यार बॉस के सामने दोस्त को चार गाली दे देना और अपनी बचा लेना.“
“अरे दादा कैसी बात करते हो“
उप्रेती के स्वर में एक दबी हुई चहक सुनाई दी.
“दोस्त का पव्वा साला बोतल से कम नहीं,
मेरी डीओ की शान कम कर दे इतना किसी में दम नहीं“
घटिया रदीफ़ काफीये का घटिया शेर हमें अनापत्ति प्रमाण पत्र की तरह लगा और हम उप्रेती को बताई जगह पर मिलने की बात कहकर दूर से नजारे का लुत्फ उठाने रवाना हो गये.
दानपुर भवन के बगल में शटर के किनारे तीन परछाइयां अंधेरे में गजबज करती सी लगी. एक छह फुटिया परछाई जो संभवत अंकल नाम के वरिष्ठ सेल्समैन की रही होगी, दूसरी उससे थोड़ा कम और एक लगभग पौने पांच फुट की परछाई. हम उप्रेती को जब तक ठीक से मार्क कर पाते तब तक सिगरेट और दियासलाई की चमक में उप्रेती का चेहरा दिखाई पड़ा. (Almora Anecdote Jamoora Vivek Sonakiya)
“अरे यह क्या“
पव्वे की गर्दन बेरहमी से मरोड़ कर एक सांस में नीट खींचकर उप्रेती ने जोर की डकार मारी. मोबाइल की चमक में मुस्कुराते हुए चेहरे की झलक बेकरार कर रही थी कि बच्चे को यही पकड़कर आंखों के सामने जुगनू दिखा दे पर पिक्चर अभी बाकी थी दोस्त.
व्हाट्सएप पर एक मैसेज प्राप्त हुआ “थैंक्स ए लॉट डियर यू सेव माय करियर, थैंक्स अगेन चीयर्स.“
तब तक हमने पाया कि हम कचहरी की सीढ़ियों पर उकडूं बैठे हुए घुचड़ूं बन चुके थे.
-विवेक सौनकिया
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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं
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