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आचार्य नरेन्द्र देव जिन्हें अपना संस्कार-पिता मानते थे नैनीताल के प्रताप भैया

आचार्य नरेन्द्र देव की 130 वीं जयन्ती पर विशेष : आचार्य नरेन्द्र देव का बहुमुखी व्यक्तित्व ही ऐसा था कि उन्हें किसी दायरे में रखकर समेटना संभव नहीं. वे एक समाजवादी चिन्तक होने के साथ-साथ, प्रखर शिक्षाविद, विभिन्न भाषाओं में अधिकार रखने वाले भाषा विज्ञानी, बौद्ध धर्म के मर्मज्ञ, भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अजेय सेनानी  तथा भारतीय संस्कृति के पोषक व संवाहक थे. (Acharya Narendra Dev Uttarakhand Connection)

31 अक्टूबर 1889 को सीतापुर में उस समय के जाने माने वकील बलदेव प्रसाद के घर जन्मे नरेन्द्र देव का बचपन का नाम अविनाशी लाल था. उनके पिता धार्मिक प्रवत्ति के होने के साथ-साथ राजनीति में भी रूचि रखते थे, परिणाम स्वरूप उस समय के धार्मिक व राजनैतिक व्यक्तित्वों का घर में आना जाना लगा रहता था. नरेन्द्र देव भी बाल्यकाल से ही स्वामी रामतीर्थ, मदन मोहन मालवीय के सम्पर्क में आये, जिनके विचारों का प्रभाव उनके बाल मस्तिष्क पर घर कर गया. पारिवारिक जन चाहते थे कि वे अपना पैतृक व्यवसाय वकालत का अपनायें. सन् 1915 से 1920 तक उन्होंने फैजाबाद न्यायालय में वकालत भी की. लेकिन उन्हें इसमें रूचि नहीं थी. संस्कृत से एम.ए. करने के बाद वे काशी विद्यापीठ में आचार्य बन गये और यहीं से आचार्य शब्द उनके नाम के आगे जुड़ गया. बाद में काशी विद्यापीठ, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय तथा लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति के पद पर रहकर भी उन्होंने एक शिक्षाविद के रूप में शिक्षा के क्षेत्र में कई आदर्श स्थापित किये. उन्होंने सदैव शिक्षा के समाजीकरण की बात कही. (Acharya Narendra Dev Uttarakhand Connection)

 जहाँ किसी शीर्ष राजनेता के दौरे पर पूरा अमला उनके पीछे चलता है, इस संबंध में आचार्य नरेन्द्र देव का प्रसंग एक नयी रोशनी देता है. एक बार जब प्रधानमंत्री पं. नेहरू उनके विश्वविद्यालय आये, तब आचार्य नरेन्द्र देव वहां कुलपति थे. आचार्य नरेन्द्र देव ने उनका विश्वविद्यालय प्रांगण में स्वागत तो किया लेकिन उनकी अगवानी करने के बजाय अपने काम को तरजीह देते हुए पं. नेहरू से बोले, ’’जवाहर, मैं अपना आफिस का काम निबटाता हॅू, आप विश्वविद्यालय का निरीक्षण कीजिएगा.’’ पं. नेहरू उनसे उम्र में छोटे होने के कारण प्रधानमंत्री होने के बावजूद वे जवाहर नाम से ही संबोधित करते थे.

विद्वत्ता के साथ ही विनोदप्रियता भी उनके स्वभाव में गजब की थी. कहते हैं, एक बार पं. गोबिन्द बल्लभ पन्त जी के साथ आचार्य नरेन्द्र देव अपनी गली से गुजर रहे थे. गली में गधों को देखकर पं. पन्त बोले – “आचार्य जी ! आपकी गलियों में गधे बहुत हैं.’’ आचार्य नरेन्द्र देव ने हाजिर जवाबी में उत्तर दिया –“पन्त जी गधे रोज नहीं रहते, कभी कभी आ जाया करते हैं.’’ एक ठहाके के साथ दो पल के लिए माहौल में हंसी तैरने लगी.

आचार्य नरेन्द्र देव की हिन्दी एवं संस्कृत के अलावा अंग्रेजी, फारसी, पाली आदि भाषाओं में अच्छी पकड़ थी. स्वतंत्रता आन्दोलन में वे कई बार जेल गये. काशी विद्यापीठ के आचार्य के रूप में उन्होने शिक्षकों के स्वतंत्रता आन्दोलन का नेतृत्व भी किया. 1930 के नमक सत्याग्रह, 1932 के सविनय अवज्ञा, 1941 के व्यक्तिगत् सत्याग्रह के कारण वे कई बार जेल गये. 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में उन्हें बम्बई (वर्तमान मुम्बई) से गिरफ्तार किया गया तथा 1942 से 1945 तक वे पं0 जवाहर लाल नेहरू के साथ अहमद नगर किले में कैद रहे. बताते हैं, कि जवाहर लाल नेहरू ने जेल में उनके साथ रहकर उनकी विलक्षण प्रतिभा को देखते हुए अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ का भी उनसे संशोधन करवाया. (Acharya Narendra Dev Uttarakhand Connection)

1916 से लेकर 1948 तक वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सक्रिय सदस्य रहे. हालांकि बीच के कुछ वर्षों में उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का भी गठन किया. 1948 में कांग्रेस पार्टी छोड़ते समय का उनका निर्णय का जिक्र करना यहाँ समीचीन होगा. कांग्रेस छोड़ते समय वे जिस कांग्रेस पार्टी के टिकट से विधायक चुने गये थे, उस पद से भी त्यागपत्र देकर इस टिप्पणी के साथ अपनी व्यथा कही  कि अपने पुराने घर को छोड़ते समय तकलीफ तो हो रही है, लेकिन जब घर के सदस्यों से सिद्धान्तों में सहमति न हो तो घर छोड़ना ही पड़ता है. ये थी उनकी सिद्धान्तों की राजनीति, जिन्होंने पार्टी से त्यागपत्र के साथ स्वयं विधान सभा की सदस्यता से भी त्यागपत्र दे दिया था. त्यागपत्र के बाद वे ताउम्र समाजवादी विचार धारा  को आगे बढ़ाने में सतत् प्रयत्नशील रहे. भारत की धरती के अनुरूप उन्होंने कार्ल मार्क्स के समाजवादी दर्शन को अप्रासंगिक बताते हुए लोकतांत्रिक समाजवाद की विचारधारा का सूत्रपात किया.

अब बात करें कि नैनीताल से किस तरह उनका रिश्ता रहा. दरअसल उन्होंने बौद्ध दर्शन पर अपनी पुस्तक रामगढ़ (नैनीताल) के नारायण स्वामी आश्रम में लिखी. तब उनके लखनऊ विश्वविद्यालय के शिष्य प्रताप सिंह उनके साथ रहे. प्रताप सिंह बताते थे, कि वे दमा के रोगी थे और थूकने के लिए डिब्बी रखते थे. जब डिब्बी भर जाती तो कहते -’’ प्रताप भाई इसे बाहर फेंक आओ.’’ प्रताप सिंह को प्रताप भाई या प्रताप भैय्या नाम उन्हीं की देन है. उनके जीवन दर्शन से प्रभावित होकर वे आचार्य नरेन्द्र देव के शिष्य बन गये तथा स्वयं वे आचार्य नरेन्द्र देव को अपने संस्कार पिता मानते थे.

प्रताप भैया

1969 में प्रताप भैया ने आचार्य नरेन्द्रदेव शिक्षा निधि नाम से एक गैर-राजनैतिक संस्था की शुरूआत की, जिसे वे आचार्य नरेन्द्र देव की सांस्कृतिक धरोहर मानते रहे. आज भी यह संस्था उनके नाम तथा विचारों को उत्तराखण्ड की धरती पर प्रचारित व प्रसारित करने के लिए कई शिक्षण संस्थाओं एवं वैचारिक कार्यक्रमों का आयोजन करते आ रही है. आचार्य नरेन्द्र देव जी के विचारों की इस थाती को प्रताप भैया के बाद उनके परिजन बखूबी संभाले हुए हैं. (Acharya Narendra Dev Uttarakhand Connection)

1956 में अपने मित्र मद्रास के राज्यपाल श्रीप्रकाश के आमंत्रण पर वे स्वास्थ्य लाभ के लिए गये और वहीं दमा की बीमारी के चलते 67 साल में उनका निधन हो गया. उनके विचारों की विस्तृत जानकारी उनके द्वारा लिखित पुस्तक – राष्ट्रीयता और समाजवाद, लक्ष्य तथा साधन,सोशलिस्ट पार्टी और मार्क्सवाद, भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास, युद्ध और भारत, किसानों का सवाल तथा बौद्ध धर्म दर्शन आदि पुस्तकों से प्राप्त की जा सकती हैं.

– भुवन चन्द्र पन्त

लेखक की यह रचना भी पढ़ें: ऐसे बना था नीमकरौली महाराज का कैंची धाम मंदिर

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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं

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