साल 1846 ईसवी. अवध के कैंसर से जूझते नवाब अमजद अली शाह अपने अंतिम दिन गिन रहे थे. कभी समृद्धि की चकाचौंध से भरे अवध के विशाल साम्राज्य के भी अंतिम दिन शुरू होने वाले थे. 1801 की संधि के अनुसार आधा भू-भाग अंग्रेजों को सौंपने के बाद भी इलाहाबाद से इधर और शाहजहांपुर से उधर का विस्तृत एवं हिमालय से उतरी अनेक नदियों से सिंचित पर्याप्त उर्वरा भू-भाग इस साम्राज्य का हिस्सा थे. किसान अपने जमींदारों के अधीन इन जमीनों पर मेहनत कर शानदार फसलें उगाते.
(A Journey Through the Kingdom of Oud)
किसानों की यही मेहनत साम्राज्य की चकाचौंध का आधार थी. उनसे भारी-भरकम लगान वसूल किया जाता. अवध के गाँव-देहात से वसूल किया गया यह मोटा लगान कुछ लखनऊ शहर को खूबसूरत बनाने पर और ज्यादातर नवाबों के राग-रंग व भोग विलास पर खर्च होता. जिलों और परगनों में लगान वसूली के ठेके दबंग व अत्याचारी ठेकेदारों को दिए जाते. जो जमींदारों और काश्तकारों का खून निचोड़ने में जितना सक्षम, वह उतना सफल ठेकेदार. जो जितनी ऊँची बोली लगाए, उतना बढ़िया जिला पाए. राजकोष का देय भी चुकाओ, अपना भी कमाओ.
नवाब को भी उपहारों से प्रसन्न करो और जिलों से लेकर लखनऊ दरबार तक बैठे साम्राज्य के भ्रष्ट अधिकारियों को भी उपकृत करो. इसी दौर में घोर अत्याचारी और दमनकारी रघुबर सिंह को गोंडा व बहराइच जिलों की लगान वसूली का ठेका मिला. उसका पिता दर्शन सिंह भी लखनऊ दरबार का प्रिय था और जिलों में अपने आतंक के लिए प्रसिद्ध था. उसने जिले का प्रभार लेते ही अपने तौर-तरीके शुरू कर दिए. बोंडी जागीर के मालिक प्रतिष्ठित राजपूत राजा हरदत्त सहाय से पिछले वर्ष के लगान से पाँच हजार रुपये बढ़ाकर भुगतान करने मांग की.
राजा ने शुरुआती हीलाहवाली के बाद अंत में बढ़ी दर पर भुगतान करने के लिए सहमति व्यक्त कर दी. उसने अपने सभी काश्तकारों को रघुबर सिंह के एजेंट प्रयाग प्रसाद के शिविर में इकट्ठा कर इस बढ़ी हुई रकम के भुगतान के लिए प्रतिभूति देने को कहा. इस बीच रघुबर सिंह के एजेंट प्रयाग प्रसाद ने पिछले वर्ष की पाँच हजार की वृद्धि के अलावा अपने लिए भी सात हजार रुपये की अनुग्रह राशि की मांग कर दी. राजा ने इससे इनकार कर दिया.
प्रयाग प्रसाद ने रघुबर सिंह को गोपनीय संदेश भेजा कि राजा या उसके किरायेदारों से राजस्व प्राप्त करने की तब तक कोई उम्मीद नहीं, जब तक वह अपनी सेना को लेकर यहाँ न धमके. रघुबर सिंह रात में एक बड़े सैन्य दल के साथ आया. उसने अपने एजेंट के शिविर को घेर लिया और वहाँ एकत्रित किरायेदारों और राजा के अधिकारियों को पकड़ लिया. फिर उसने एक से लेकर दो सौ तक सैनिकों की टुकड़ियां बनाकर उन्हें जागीर के सभी कस्बों और गाँवों को लूटने और उनमें मौजूद सभी सम्मानित निवासियों को पकड़ने के लिए भेजा. उन्होंने बोंडी शहर को लूट लिया और राजा, उसके रिश्तेदारों तथा आश्रितों के सभी घरों को तोड़ दिया.
सभी कस्बों और पड़ोस के भी अन्य गाँवों को लूटने के बाद वे सभी उम्र के एक हजार स्त्री-पुरुषों को बंदी बनाकर ले आए. इन्हें तब तक हर तरह की यातनाएं प्रदान की गईं, जब तक कि उन्होंने फिरौती की मांग का भुगतान नहीं किया या उसके लिए लिखित वचन नहीं दिया. इस दौरान पाँच हज़ार मवेशियों को भी पकड़ कर लाया गया और उन्हें लूट के माल के रूप में वितरित किया गया.राजा भागने में सफल रहा, लेकिन उसके एजेंटों को पकड़ कर उन्हें किरायेदारों की तरह ही यातनाएं दी गईं.
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रघुबर सिंह व्यक्तिगत रूप से इन सभी अत्याचारों की निगरानी करते हुए छह सप्ताह तक बोंडी में रहा और फिर करम हुसैन को वहाँ अपने एजेंट के रूप में छोड़कर चला गया. उसने राजा के किरायेदारों और अधिकारियों पर अत्याचार करना जारी रखा और अपने शिविर में बंदियों को इकट्ठा कर लिया. उसने पुरुषों की दाढ़ी को भीगे बारूद से रगड़ा और जैसे ही बारूद धूप में सूख गया, उसने उसमें आग लगा दी. उसने अपनी फिरौती के लिए उधार लेने या भीख मांगने की स्थिति में पहुँच चुके राजा के चार सेवकों कंजन सिंह, बस्ती राम, अदमादत्त पांडेय, भगवंत राय और अन्य लोगों को ऐसी यातनाएं, दी,जिनका उल्लेख करना भी बहुत क्रूर और अशोभनीय है.
यह देखकर कि किरायेदार वापस नहीं आए और अगर राजा वापस नहीं आता, जागीर के पूरी तरह से सुनसान होने की संभावना थी तो रघुबर सिंह ने करम हुसैन को निर्देश दिया कि वह किसी भी शर्त पर उसे वापस आमंत्रित करें. राजा भागकर जंगलों में चला गया था. लिहाजा करम हुसैन ने पवित्र कुरान पर हाथ रखते हुए व्यक्तिगत सुरक्षा की कसम खाकर पदम सिंह नाम के एक सम्मानित महाजन को मध्यस्थ बनाकर राजा को वापस लाने के लिए तैयार किया और इस कसम पर भरोसा करते हुए राजा वापस लौट आया.
सुलह और भविष्य की दोस्ती के प्रतीक के रूप में राजा और करम हुसैन ने पगड़ी बदल दी. वे पाँच महीने तक सौहार्दपूर्ण ढंग से एक साथ रहे और राजा के किरायेदार अपने घरों व खेतों में लौट आए.
सभी सुरक्षा की मीठी थपकियों का अनुभव कर रहे थे कि रघुबर सिंह ने अचानक एक अन्य एजेंट महाराज सिंह को करम हुसैन की जगह पर भेज दिया और राजा व उनके विश्वसनीय प्रबंधक बेनी राम शुक्ल को पकड़ लिया गया. पूरी हिफाजत की कसमें लेने के बा बेनी राम और राजा के अन्य विश्वसनीय अधिकारी उसके शिविर में आए और खातों का समायोजन किया. महाराज सिंह ने जब देख लिया कि ये लोग अपनी निजी सुरक्षा को लेकर परवाह हो गए हैं तो उसने एक शाम मजबूत व ताकतवर बेनी राम के साथ बैठकी में उन्हें उस सुंदर खंजर को दिखाने के लिए कहा, जो वह हमेशा अपने कमरबंद में पहने रहते थे.
बेनी राम ने ऐसा ही किया और जैसे ही महाराज सिंह ने इसे अपने हाथ में लिया, उसने वहाँ उपस्थित अधिकारियों में से एक रोशन अली और उसके सशस्त्र परिचारकों को बेनी राम को पकड़ने का संकेत दिया. बेनी राम तंबू से भागने की कोशिश करने लगा तो मातादीन खासबरदार ने उसे पीछे से काट दिया. बाकी लोग भी उस पर टूट पड़े और उन अधिकांश अधिकारियों की उपस्थिति में उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए, जिन्होंने उसकी पूरी हिफाजत की कसम खाई थी. उनमें से किसी ने भी उसे बचाने के लिए हस्तक्षेप नहीं किया. हालांकि राजा का एक अन्य विश्वसनीय नौकर दौलत राय भागने में सफल रहा और बलालपुर में अपने बचाव की तैयारियों में जुटे राजा के पास पहुँचा. दो महीनों तक कस्बे और गाँव वीरान रहे. लेकिन जमीन पर फसलें खड़ी थी और किराये पर रखे गए पासी तीरंदाज उनकी रक्षा करते रहे.
अब रघुबर सिंह के इन जिलों के प्रमुख एजेंट बिहारी लाल ने राजा को उनके वफादार सेवक बेनी राम की मृत्यु पर शोक पत्र लिखा और उन्हें बताया कि उसने खलनायक महाराज सिंह को सभी नौकरियों से बर्खास्त कर दिया है और उसके स्थान पर करम हुसैन को नियुक्त किया है, जो सभी क्षतिपूर्ति करने के साथ सभी गलतियों का निवारण करेगा. यह पत्र उसने एक बहुत विश्वसनीय व्यक्ति रहूआ जागीर के कलेक्टर उम्मेद राय के माध्यम से भेजा. करम हुसैन ने अपने कार्यालय का प्रभार फिर संभाला और अकेला राजा के पास पहुँच गया. उसके साथ वह कुछ दिनों तक दावत उड़ाता रहा और कुरान की कसम उठाता रहा कि सब कुछ उसकी अनिच्छा और जानकारी में लाए बिना हुआ था. वह अब अपने मित्र राजा और उसके जमींदारों व काश्तकारों के साथ हर बात में न्याय कर सकने के पूरे दृढ़ संकल्प के साथ वापस आया है. इस प्रकार बेचारे बूढ़े राजा की आशंकाओं को शांत करने के बाद वह उसे अपने साथ बोंडी वापस चलने के लिए दबाव बनाने में सफल रहा. जहाँ उसने कुछ समय के लिए स्पष्टवादिता और सौहार्द के साथ व्यवहार किया और कामकाज के सिलसिले में उसके पास आए सभी व्यक्तियों का सम्मान करने के लिए कुरान पर गंभीरता से शपथ ली.
राजा के किरायेदारों और एजेंटों का सारा डर खत्म हो गया और वे फिर से स्वतंत्र रूप से उसके डेरे में आ गए. राजा ने अब पहले की तरह अपने सभी किरायेदारों को किराये का भुगतान करने को अनुबंध करने के लिए आमंत्रित किया. लोगों को अब शांति से अपनी फ़सल काटने की अनुमति मिलने की आशा थी. करम हुसैन ने अब बिहारी लाल को सुझाव दिया कि वह जितनी बड़ी सेना इकट्ठी कर सके, उसे लेकर अचानक आ जाए और उसके निमंत्रण पर इकट्ठे हुए सम्मानित लोगों को पकड़ ले. वह रात को घातक तरीके से आगे बढ़ा और एक बड़े सैन्य दल के साथ अचानक बोंडी में आ धमका तथा राजा एवं उसके परिवार को छोड़कर वहाँ इकट्ठे हुए सभी लोगों को पकड़ लिया. राजा परिवार सहित जंगल में भाग गया था.
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पहले की तरह एक सौ से लेकर दो सौ तक की टुकडियां कस्बों-गाँवों को लूटने और उन लोगों को पकड़ने के लिए भेजी गई, जिनसे कुछ भी जबरन छीना जा सके. जागीर के सभी कस्बों और गाँवों को लूट लिया गया था और पंद्रह सौ पुरुषों एवं लगभग पाँच सौ महिलाओं व बच्चों को कैद कर लिया गया था. सभी प्रकार के कम से कम अस्सी हजार जानवर भी हाँक लिए गए. इनमें पच्चीस हजार दुधारू पशु थे और बाकी घोड़े, घोड़ी, भेड़, बकरी, टट्टू आदि. सभी पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के साथ बिहारी लाल के मुख्यालय हरिहरपुर जिले में बसंतपुर तक बीस मील दूर खदेड़ते हुए ले जाया गया. तीन दिनों तक भारी बारिश का सिलसिला जारी रहा. गर्भवती महिलाओं को सैनिकों द्वारा डंडों और बंदूक की बटों से पीटा गया. उनमें से कई ने समय से पहले बच्चों को जन्म दे दिया और सड़क पर ही मर गई. दस मील से अधिक भीड़-भाड़ भरी सड़क पर कई बच्चों को जानवरों ने कुचल कर मार डाला. रघुबर सिंह और उसके एजेंट बिहारी लाल, करम हुसैन, महाराज सिंह, प्रयाग प्रसाद और अन्य लोगों ने कई हज़ार बेहतरीन मवेशियों का चयन किया और उन्हें अपने-अपने घर भेज दिया और बाकी को सैन्य अधिकारियों और सैनिकों में बंटने लिए छोड़ दिया गया.
प्रताड़नाओं के कारण कई सम्मानित लोग मारे गए. राजा की बहन के पति बलदी सिंह ने ज़हर खा लिया और मर गए. अत्यंत प्रतिष्ठित ब्राह्मण रामदीन ने आगे की यातना और बेइज्जती से बचने के लिए खुद को चाकू मार कर जान दे दी. दो महीने तक बसंतपुर में ये अत्याचार चलता रहा. उस दौरान कैदियों को सरकारी सेवकों से भोजन तक नहीं मिलता था. उन्हें जो कुछ भी मिला, वह उनके दोस्तों या आसपास के परोपकारी किसानों द्वारा भेजा गया था. जब उन्हें भोजन के रूप में मिठाइयां भेजी जाती, जो खान-पान के मामले में वर्जनाओं से मुक्त थी, तो सैनिक अक्सर उन्हें उनसे छीन कर स्वयं खा लेते थे या अपने अधिकारियों के पास ले जाते थे. सभी महिलाओं और बच्चों के कपड़े उतार दिए गए और कई ठंड व भोजन की कमी से मर गए. सितंबर और अक्टूबर के महीनों के दौरान इन अत्याचारों को अंजाम दिया गया था. भारी बारिश ने देश को डुबो दिया था और गरीब कैदियों को नम जमीन पर खुले आसमान तले नंगे लेटने के लिए मजबूर किया गया. बोंडी के सम्मानित जागीरदार अपरील सिंह को तब तक प्रताड़ित किया गया, जब तक कि वह अपनी दो बेटियों को बेचकर पैसे देने के लिए तैयार नहीं हो गए. बहुत सारी सम्मानित महिलाएं, जिन्हें बोंडी से बसंतपुर ले जाया गया था, उनका फिर कभी पता नहीं लग पाया. वे मर गई या बेच दी गईं, उनके परिजन इस बारे में कभी नहीं जान पाए. यातना देने के लिए नियुक्त सिपाहियों और अन्य लोगों ने पीड़ितों से मिलने के लिए आने वाले उनके दोस्तों तथा आसपास के दयनीय किसानों से खूब धन वसूला. पीड़ितों की चीखों पर वे सभी हँसते और उनका मजाक उड़ाया जाता.
यहाँ यह उल्लेख करने योग्य है कि नैटिव इन्फेंट्री रेजीमेंट के एक बूढे सूबेदार उस समय छुट्टी पर घर आए थे. अपने परिवार के साथ तीर्थयात्रा पर गया तीर्थ की ओर जाते समय वे बसंतपुर से गुजरे. उन्होंने और उनके परिवार ने इस कार्य के लिए जो राशि बचाई थी, वो उनके लिए काफी बड़ी और बहुत महत्वपूर्ण थी. इसे वे अपने दिवंगत परिजनों की आत्माओं की शांति और उनके निर्विघ्न वैकुंठ गमन के निमित तर्पण पर खर्च करना चाहते थे. लेकिन जब उन्होंने बसंतपुर में गरीब कैदियों की पीड़ा देखी तो उन्होंने और उनके परिवार ने वह सब कुछ दे दिया जो उनके पास था,ताकि कुछ महिलाओं और बच्चों को मुक्त कराया जा सके. उन्होंने उन्हें मुक्त करवा कर उनके घरों तक पहुँचाया और फिर अपने घर लौट आए. यह कहते हुए कि उन्हें उम्मीद है कि भगवान उनके इस दान को स्वीकार करेंगे और पीड़ितों को राहत देकर उन्हें क्षमा करेंगे. पितृ देवभ्यो नमः.
सामग्री स्रोत- डव्ल्यू. एच. स्लीमन की पुस्तक “A Journey Through the Kingdom of Oud” से.
अनुवाद- चंद्रशेखर बेंजवाल
चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखते हैं.
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