Featured

क़स्बे की एक सर्द रात – 1

“आप क्या लेना पसंद करेंगे सर?”, कहीं दूर से आती वो खनकती सी आवाज़ उसे एक झटके में किसी गहरी गुफ़ा से बाहर निकाल लाई. उस हर तरह से ठंडी, ख़ामोश रात के पौने ग्यारह बजे वो अपने उस छोटे से क़स्बे के इकलौते ठीक-ठाक से रेस्तरां में आकर बैठा था. बाक़ी लगभग सारा शहर कोहरे की छत के नीचे नींद और अँधेरे की चादरों के बीच दुबक कर बेसुध हो चुका था, जाने कैसे यही रेस्तरां एक ऐसी जगह बची थी इस क़स्बे में जिसे उसकी ही तरह रतजगों की बीमारी थी.

उसने एक नज़र उठा कर उस आवाज़ की तरफ़ देखा. पहली ही नज़र में उसे उस आवाज़ के पीछे से झाँकता पहाड़ दिख गया. पहाड़ों में जो काफ़ी आम सी रंगत मानी जाती है, दूध में हल्का सा सिंदूर मिलाने से बना शफ़्फ़ाक़ गोरा-ग़ुलाबी रंग उस आवाज़ के चेहरे पर नुमायाँ था. और जो पहाड़ में अमूमन देखने को नहीं मिलतीं, सीप जैसी बड़ी-बड़ी फाँकदार दो आँखें उस रंगत के बीचोंबीच से उस के चेहरे पर सवालिया तेवरों के साथ टिकी हुई थीं. यानि ये लड़की पहाड़ से है, उसके ज़हन में किसी ने कहा.

इस रेस्तरां में वो कई महीनों से आ रहा था और अक्सर इतनी रात गए ही वहाँ आया करता था, लेकिन अब तक उसे वहाँ देर रात तक काम करते स्टाफ़ में कोई लड़की नहीं दिखी थी. जो लड़कियाँ दिन में वहाँ ग्राहकों के लिए पीत्ज़ा या गार्लिक ब्रेड वगैरह बनाती और परोसती थीं, वो शाम के वक़्त अपने-अपने घर चली जाया करती थीं. लिहाज़ा इस वक़्त वहाँ उस लड़की को ऑर्डर लेते देखना उसके लिए कुछ अजीब तो नहीं, लेकिन अनोखा सा ज़रूर था.

उस समृद्ध, शांत और उनींदे से क़स्बे में अपराध वगैरह काफ़ी कम हुआ करते थे और वहाँ का माहौल अभी भी काफ़ी हैरतअंगेज हद तक साफ-सुथरा सा था इसलिए वहाँ एक लड़की का देर रात तक किसी रेस्तरां में काम करना फ़िक्रों को तो नहीं, अलबत्ता कई सारी उत्सुकताओं को ज़रूर जन्म दे रहा था, जो उसके हमेशा सवालों से भरे रहने वाले दिमाग़ में करवटें लेने लगी थीं. मसलन, शायद इस लड़की ने अभी जल्दी में ही ये नौकरी शुरू की है, क्यूँ कि पिछली बार तो ये यहाँ नहीं थी? क्या ये लड़की सिर्फ़ एक अदद नई नौकरी पाने के लिए ही पहाड़ के अपने दूरदराज़ के किसी गाँव से यहाँ इस क़स्बे में आई थी या कि इसका पूरा परिवार ही विपन्नता के चलते पहाड़ से पलायन कर के मैदानों के ज़हरीले दलदल में धँसने वाले अनगिनत कुनबों में से एक रहा होगा? अब इतनी देर रात यहाँ से आधी रात रेस्तरां बंद होने के बाद ये कहाँ जाएगी, कैसे जाएगी, किसके साथ जाएगी! क्या पता, किसे मालूम!!

लेकिन फ़िलहाल अभी खाने पर फोकस करना ज़रूरी था, क्यूँकि यही वह चीज़ थी जिसके लिए वह यहाँ बैठा था. “आपके पास क्या-क्या ऑप्शंस अवेलबल होंगे अभी?”, उसने सवाल वापस उसकी तरफ़ लौटाया, और अब पहली बार उन दो बड़ी-बड़ी फाँकदार आँखों में ठीक उतर कर, उन्हें ध्यान से देखा. उन सीप की फाँकों से झाँकती दो भूरी-नीली पुतलियाँ गहरी थीं, बेहद गहरी; लेकिन वो जितनी गहरी थीं उतनी ही सूनी और अँधेरी भी. उनकी तलहटी से टकरा कर कुछ भी वापस नहीं आता था, और जिसे पढ़ने की लाख कोशिश करने पर भी कुछ समझ में नहीं आता था, वो गूढ़ सी इबारत एक रहस्यमयी सी भाषा में उन भूरी-नीली पुतलियों के डोरों में लिखी हुई थी.

( जारी )

 

किच्छा के रहने वाले अरविन्द अरोरा का सिनेमा जगत से गहरा ताल्लुक है. इनके लेखन में उत्तर भारत के क़स्बाई जीवन की बहुरंगी छवियाँ देखने को मिलती हैं. आमजन के प्रति उनकी निष्ठा और प्रतिबद्धता बेहद स्पष्ट है. अरविन्द काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.  

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

हो हो होलक प्रिय की ढोलक : पावती कौन देगा

दिन गुजरा रातें बीतीं और दीर्घ समय अंतराल के बाद कागज काला कर मन को…

1 week ago

हिमालयन बॉक्सवुड: हिमालय का गुमनाम पेड़

हरे-घने हिमालयी जंगलों में, कई लोगों की नजरों से दूर, एक छोटी लेकिन वृक्ष  की…

1 week ago

भू कानून : उत्तराखण्ड की अस्मिता से खिलवाड़

उत्तराखण्ड में जमीनों के अंधाधुंध खरीद फरोख्त पर लगाम लगाने और यहॉ के मूल निवासियों…

2 weeks ago

यायावर की यादें : लेखक की अपनी यादों के भावनापूर्ण सिलसिले

देवेन्द्र मेवाड़ी साहित्य की दुनिया में मेरा पहला प्यार था. दुर्भाग्य से हममें से कोई…

2 weeks ago

कलबिष्ट : खसिया कुलदेवता

किताब की पैकिंग खुली तो आकर्षक सा मुखपन्ना था, नीले से पहाड़ पर सफेदी के…

2 weeks ago

खाम स्टेट और ब्रिटिश काल का कोटद्वार

गढ़वाल का प्रवेश द्वार और वर्तमान कोटद्वार-भाबर क्षेत्र 1900 के आसपास खाम स्टेट में आता…

2 weeks ago