कोई सामान्य सी घटना भी आपकी जिन्दगी की दिशा मोड़ सकती है, यदि संवदेनशीलता अन्दर तक हिला दे. ऐसी ही एक घटना ने बालक प्रताप को जातिवादी व्यवस्था का धुर विरोधी बना दिया. ये वही प्रताप की बात हो रही हैं, जो बाद में प्रताप भैया नाम से लोकप्रिय हुए. नयी पीढ़ी को छोड़ दें, तो प्रताप भैया की शख्सियत से पहाड़ का हर इन्सान वाकिफ रहा है. (Birth Anniversary of Pratap Bhaiya)
उ.प्र. के जमाने में 1957 से 1962 तक सबसे कम उम्र (महज 25 वर्ष) के विधायक तथा 1967 में केवल 10 माह के लिए चैधरी चरण सिंह के नेतृत्व में बनी संयुक्त विधायक दल सरकार में भी सबसे कम उम्र के तेज-तर्रार और असरदार कैबिनेट मंत्री रहे प्रताप भैया का करिश्माई व्यक्तित्व आज भी लोग याद करते हैं. ताउम्र समाजवाद का झण्डा लिए उन्होंने न केवल जातिवादी व्यवस्था का विरोध किया बल्कि स्वयं से शुरूआत कर अपने नाम के आगे का जाति सूचक शब्द हटाकर समाज को भी संदेश दिया. बाद में जब उन्होंने नैनीताल में भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय की स्थापना की तो उसमंे भी छात्रांे के साथ-साथ शिक्षक व कर्मचारियों को जातिसूचक शब्द के इस्तेमाल से सख्त परहेज रखा. वहाॅ के छात्र अपने पहले नाम -अखिलेश, संदीप, आलोक आदि नाम से जाने जाते थे और शिक्षक जगदीश भैया तथा बहादुर भैया एवं शिक्षिकाऐं जानकी दीदी, मंजूदीदी नाम से. छात्र और शिक्षक एक दूसरे की जाति व उपजाति न तो जानते थे और न इसकी आवश्यकता उन्हें महसूस हुई.
1957 से 1962 तक उन्होंने खटीमा विधानसभा क्षेत्र के विधायक के रूप में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया. महज 25 साल का नौजवान लोगों के बीच समर्थन जुटाने निकल पड़ता है, न पास में चुनाव का खर्च और न समर्थकों का साथ चलता हुजूम. टनकपुर, बनबसा, खटीमा, सितारगंज और जहांनाबाद की सड़कों पर रिक्शे पर सवार होकर स्वयं माइक से एनाउन्समेंट करता, कि आज अमुक जगह पर प्रताप भैय्या की चुनावी सभा होगी. सुनने वाले को यह पता नहीं कि एनाउन्समेंट करने वाले स्वयं प्रताप भैय्या हैं. चुनावी सभाओं में स्वयं दरी बिछाते और स्वयं ही सभा को संबोधित करते. तब खटीमा विधानसभा क्षेत्र का एक हिस्सा ओखलकाण्डा तक तो दूसरा पीलीभीत जिले के जहांनाबाद तक हुआ करता था। जहांनाबाद एक मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र और प्रतिद्वन्दी मुस्लिम उम्मीदवार थे – मकसूद आलम. उस समय कांग्रेंस का वर्चस्व और साथ ही मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में गैर अनुभवी तथा गैर मुस्लिम उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ना मामूली बात नहीं थी. पिता कट््टर कांग्रेसी, जिनका चुनाव में सहयोग मिलना तो दूर वे अपने कांग्रेसी उम्मीदवार के समर्थन में जुटे थे. प्रताप भैया का जाति व मजहब के नाम पर तटस्थता ही वह मूलमंत्र रहा, जिसके बदौलत वे भारी मतों से मुस्लिम क्षेत्र में ही मुस्लिम उम्मीदवार को पटखनी देकर जीत गये. इस घटना ने मजहबी व जातीय समीकरणों की दीवार ढहाकर उन्हें समाजवाद का व्यावहारिक पाठ दिया. उन्होंने नारा दिया – काम का बंटवारा, इन्सान बराबर.
वे बताते थे कि 1967 में उ. प्र. के कैबिनेट मंत्री बनने के बाद पहली बार जब अपने पिता आन सिंह से मिलने उनके रेलवे बाजार हल्द्वानी आवास पर पहुंचे तो पिताजी को अभिवादन के बाद वे अन्य लोगों के साथ ही बराबर की कुर्सी पर बैठ गये. वे बताते थे कि कुर्सी पर बैठते ही पिताजी मुझ पर बरस पड़े, बोले – “अब तू जनता का सेवक है, नीचे जमीन पर बैठ.” वे पिताजी का आदेश शिरोधार्य कर तत्काल उनके पैंरो के पास जमीन पर बैठ गये. इस घटना ने उनको इतना प्रेरित किया कि वे ताउम्र उसे निभाते रहे. उनका एक ही डायलाग रहता- उम्र में बड़ा तो बड़ा. कहीं भी किसी समारोह में उनको आमंत्रित किया जाता तो वे आज की तरह डायस पर बैठने की होड़ में न रहकर अन्तिम पंक्ति में जाकर बैठ जाते, जब समारोह के आयोजकों की नजर उन पर पड़ती तब उन्हें डायस पर बैठने का आग्रह किया जाता. अपने साथ के लोगों से वे हॅसते हुए कहते कि आखिरी सीट के बाद तो कोई सीट है नही, कम से कम इस सीट से पीछे बैठने को कोई नहीं बोल सकता.
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पर्वतीय अंचल के विकास के लिए चैधरी चरण सिंह के नेतृत्व में गठित पर्वतीय विकास परिषद् के प्रथम उपाध्यक्ष का दायित्व संभालने का भी उन्हें अवसर मिला. स्वास्थ्य मंत्री के रूप में अस्पतालों में मरीज के वेश में जाकर औचक निरीक्षण करने के उनके किस्से आज भी लोग सुनाते फिरते हैं.
तत्कालीन राजनैतिक क्षितिज पर प्रखर समाजवादी चिन्तक आचार्य नरेन्द्र देव, डॉ. राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, मधु लिमये, मधुदण्डवते, जॉर्ज फर्नाण्डीज, एनजी गोरे सरीखे समाजवादियों के सानिघ्य वो इस कदर तपे कि आजीवन सिद्धान्तों पर आधारित जीवन के लिए समर्पित रहे. व्यक्तित्व में ऐसी निर्भीकता कि बडे से बड़ों को झुकने को मजबूर कर दें. कोई वीआईपी नैनीताल नगर में प्रवेश करे और वह उनके सैनिक विद्यालय में न आये, ऐसा हो नहीं सकता था.
वाकया 1971 का है, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी अपने व्यस्त कार्यक्रम में नैनीताल पहुंची. सुशीतल बनर्जी उस समय नैनीताल के कमिश्नर थे. मल्लीताल में गोबिन्द बल्लभ पन्त जी की मूर्ति के पास वो अपने विद्यालय की प्रधानाचार्य व छात्रों के साथ मिलने पहुंच गये. कमिश्नर ने बताया कि कार्यक्रम में स्कूल के बच्चों से मिलने का जिक्र नहीं है, तो वो बोले – प्रताप भैया लोकसवेक से ज्यादा इस देश का जिम्मेदार नागरिक है और माननीय प्रधानमंत्री से विद्यालय के बालसैनिकों का अभिवादन स्वीकार करने का आग्रह करने उनके पास भीड़ को चीरकर चले गये, जिसे प्रधानमंत्री को स्वीकार करना पड़ा तथा उन्होंने बच्चों को संबोधित भी किया. कुछ इसी तरह का वाकया उप्र के मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रतापसिंह, रक्षामंत्री बाबू जगजीवन राम तथा प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नैनीताल आगमन पर भी हुआ, जब कार्यक्रम में शामिल न होते हुए उन्हें बाल सैनिकों की परेड की सलामी लेने को विवश होना पड़ा.
राजनैतिक जीवन में सैद्धान्तिक मतभेद को व्यक्तिगत् रिश्तों के बीच उन्होंने कभी आड़े नहीं आने दिया. फिर चाहे उसके विरूद्ध चुनाव ही क्यों न लड़ा हो. स्वयं विरोधी दल के होने के बावजूद कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से न केवल उनके मधुर संबंध रहे, बल्कि वे लोग भी प्रताप भैया को पूरा सम्मान देते थे. नारायण दत्त तिवारी, के. सी. पन्त तथा हेमवती नन्दन बहुगुणा का संबंध दूसरे दल से होने के बावजूद पारिवारिक संबंध सदैव मधुर रहे.
विनम्रता का पहला पाठ भी उन्होंने अपनी माँ पार्वती देवी से सीखा. वे बताते कि एक बार घर के सामने के पेड़ पर काफी अखरोट आने से पेड़ लदकर झुक गया था, माँ ने कहा कि जिस तरह ज्यादा फल आने पर पेड़ झुक गया है, इसी तरह तुम में जब भार बढ़े (उत्तरदायित्व) तो हमेशा झुक कर विनम्र रहना.
इन्सानी फितरत है कि मोटी मोटी किताबों को पढ़ने के बाद भी जीवन में वो बदलाव अथवा क्रान्तिकारी सोच विकसित नहीं होती, जो व्यावहारिक जीवन में एक छोटी सी घटना जिन्दगी का रूख बदल देती हैं. जातिवादी व्यवस्था के प्रति नफरत के बीजों का प्रस्फुटन के पीछे एक वजह शायद यह मार्मिक घटना भी रही. 1940 के दशक की बात है, तब बालक प्रताप सिंह कोई 8-10 वर्ष की उम्र के रहे होंगे. उनके पिता आन सिंह मेम्बर साहब खेती-किसानी के साथ इलाके का आलू खरीदकर इसे हल्द्वानी मण्डी में ले जाने का व्यापार भी करते थे. घर च्यूरीगाड़ (तब विकास क्षेत्र ओखलकाण्डा) से हल्द्वानी के लिए मोटरमार्ग नहीं था, लोग पैदल ही यात्रा करते. सामान खच्चरों से ढोया जाता. खच्चरों का संचालन खान लोग किया करते. आन सिंह मेम्बर साहब भी आलू खच्चरों से ही ढुलवाते. एक खान, जिसका नाम प्रताप भैया बार-बार दुहराते, मेरी स्मृति में अब नहीं है, वही आन सिंह मेम्बर के सामान का ढुलान करते. एक बार गांव के लोगों से आलू खरीद कर उन्होंने अपने गोठ में जमा कर दिया और हल्द्वानी तक आलू पहुंचाने के लिए उन्हीं खान साहब के खच्चरों की मदद ली गयी. तब च्यूरीगाड़ से हल्द्वानी खच्चर से ढुलान में एक दिन में पहुंचना संभव नही था, उसके बाद आढ़त में सामान पहुंचने पर भी तुरन्त बिक जाय, ऐसा भी नहीं था. खैर-दो तीन बाद जब आलू ब्रिकी की बारी आई, आलू के बोरे खोले गये तो सारा का सारा आलू सड़ चुका था. आलू तो सड़ा ही साथ ही खान के खच्चरों की मजदूरी उल्टा सिर पर. लेकिन खान भला आदमी था, उसने इस हादसे पर अफसोस जताते हुए खच्चरों की मजदूरी लेने से भी कतई इन्कार कर दिया. प्रताप भैया बताते थे कि दरअसल यह साजिश उनके गांव के चाचा की थी, जिन्होंने आलू सड़ाने की बदनियती से गोठ में आलू के ढेर के ऊपर नमक छिड़क दिया था। चाचा की इतनी बड़ी साजिश और खान साहब की दरियादिली उन्हें अन्दर तक छू गयी. वे बताते कि उसी क्षण उनके मुंह से अनायास निकल पड़ा – “मेरे चाचा अपने नहीं खान मेरे चाचा.” यहीं से उन्होंने यह बात गांठ बांध ली कि सबसे बड़ा रिश्ता खून का नहीं बल्कि दिल का होता है.
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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं
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